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११० :: परमसखा मृत्यु अर्थशून्य और अधिक संताप देने वाला जीवन भी होगा ही। ____ अतः मरणोत्तर जीवन, पारलौकिक जीवन, स्वर्गलोक, मृत्यु
आदि क्या है, इस पर अपने मन में विचार करने की इच्छा मानव-जाति को बार-बार होती है । एक देह का त्याग करने के बाद तत्काल अथवा कालान्तर में, इसी पृथ्वी पर अथवा अन्यत्र, मनुष्य-योनि में या अन्य किसी योनि में जन्म लेकर जीव नयी देह धारण करता है और नया अनुभव लेना प्रारम्भ करता है। इस सर्वमान्य लोक-कल्पना का किसी तरह विरोध किये बिना हम सर्वथा भिन्न दृष्टि से इन बातों पर विचार करेंगे। ____ कोई भी मनुष्य जब अपने पूर्वजों का श्राद्ध करता है तब किसका श्राद्ध करता है, किस चीज का श्राद्ध करता है ? क्या वह आत्मा का श्राद्ध करता है ? आत्मा तो सर्वव्यापी अर्थात् विभु है। उसके लिए मरण नहीं है, स्थानान्तर अथवा लोकान्तर नहीं है । इसलिए आत्मा के श्राद्ध का प्रश्न ही नहीं उठता। तब क्या मनुष्य देह का श्राद्ध करता है ? देह की तो राख या मिट्टी हो जाती है। कदाचित् देह अन्य प्राणियों का आहार बनकर उनके साथ एकरूप भी हो गयी हो । मृत देह को खाने वाले सियारों, भेड़ियों या गिद्धों का हम श्राद्ध नहीं करते, अथवा संभव है कि देह में कीड़े पड़ गये हों और उनका ही एक बड़ा देश बस गया हो; लेकिन उनकी तृप्ति के लिए भी हम तर्पण नहीं करते अथवा पिंड नहीं रखते।
अब बाकी बचता है मरने वाले मनुष्य की वासनाओं का समुच्चय अथवा पीछे रहने वाले लोगों के मन में रही मृतकसम्बन्धी भावनाओं का समुच्चय। इन दो वासनात्मक और भावनात्मक देहों के द्वारा मनुष्य मृत्यु के बाद शेष रहता है। इन दो में से एक देह का अथवा दोनों देहों का श्राद्ध संभव तो