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लोक - प्राप्ति :: ११ε
मनुष्य मरने के बाद इसी विश्व में, जो अच्छी या बुरी स्थिति प्राप्त करता है वह है उसका लोक । हरएक मनुष्य अपनी मृत्यु के बाद अपने समाज में लोगों की यादगार में, स्मरण-रूप या प्रेरणा- रूप रहता है, वह है उसका लोक । अगर उसका जीवन भर का कार्य बुरा या सदोष रहा तो उसके लोक अच्छे नहीं हैं । ऐसे आदमी को नरकवासी कहते हैं । अगर कोई आदमी परोपकार करता है, समाज में अच्छे संस्कार चलाता है और मजबूत करता है तो वह आदमी उत्तम लोक को पहुंचा ।
जिस तरह हम अपने भले या बुरे कर्मों के द्वारा स्वर्ग-लोक या नरक-लोक पाते हैं, उसी तरह अपने पुत्र को हम जैसी शिक्षा देते हैं, वैसे ही लोक हमें प्राप्त होते हैं । पुत्र को हम समाज में अपने प्रतिनिधि के रूप में छोड़कर चले जाते हैं, इस लिए सन्तान प्राप्ति के साथ मनुष्य को चाहिए कि वह उसे शुभ संस्कार दे, संकल्प - सामर्थ्य दे, चारित्र्य-तेज दे, तभी लोग कहेंगे कि इस आदमी ने अपने पीछे अपनी सन्तानों के द्वारा समाज में खुशबू फैलाई है, इसकी सन्तान परम्परा समाज के लिए आशीर्वाद की जैसी है । यहीं है मनुष्य का स्वर्गलोक । 'पुत्रम् अनुशिष्टम् लोक्यम् श्राहुः, इस ऋषि - वचन का अर्थ अब स्पष्ट हो जाता है । मनुष्य अपनी मृत्यु के बाद अपने पुत्र, अपने शिष्य, अपने सहपाठी, अपने धर्म-बन्धु, व्यवसाय-बन्धु, सहयोगी, समाज-सेवक आदि विशाल परिवार के रूप में जिन्दा रहता है । जितने लोग उसे जानते हैं, याद करते हैं, उनके द्वारा वह जोवित रहता है । यह जो मरणोत्तर समाज-गत जीवन है, उसीको संस्कृत में 'सांपराय' कहते हैं । ऐसे 'सांपराय' का वायुमण्डल अगर शुभ संस्कारी रहा तो हम मानते और कहते हैं कि मरनेवाले को उत्तम लोक की प्राप्ति हो गई । इसके विपरीत, अगर 'सांपराय' का वायुमण्डल हीन रहा तो प्रेत व्यक्ति को
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