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मरण का सच्चा स्वरूप :: १०७
वाले लोगों का अनुभव है कि पढ़ते-पढ़ते अथवा प्रयोग करतेकरते जो बात किसी भी तरह ध्यान में नहीं पाती वह सो कर उठने के बाद तुरन्त स्पष्ट होती है और कभी-कभी नयी दिशा ही मिलती है। वे कहते हैं कि नींद में सुप्त मन किसी अजीब ढंग से काम करता रहता है और जागृति में मन जहां नहीं पहुंच सकता था, वहां सुषुप्ति में पहुंच सकता है। जागृति में प्रयोग हो सकते हों, स्वप्न और सुषुप्ति में अकेला चिन्तन हो सकता हो, तो मरण के द्वारा जीवनानुभूति का रसायन बनाने की क्रिया क्यों नहीं होती होगी? ___ मरण-पूर्व जीवन का खात्मा होते ही सबकुछ खत्म हो जाता, तो मनुष्य को विशाल निस्तारता का और वैफल्य का ही अनुभव होता । मृत्यु का सतत दर्शन होते हुए भी मनुष्य के मन में अमरत्व की जो अदम्य कल्पना बनी रहती है, उसी पर से यह स्पष्ट कल्पना सहज रूप में होती है कि मृत्यु के बाद मरणप्रधान अथवा मरणाधीन एक अद्भुत अज्ञात जीवन होता है, जिसका खयाल हमें नहीं है। आत्मा को प्रगति मरणावधि के जीवन में उत्तम ढंग से होती होगी। उस अवधि में ज्ञानप्राप्ति के लिए भौतिक इन्द्रियों की मदद की जरूरत शायद नहीं रहती होगी।
जो हो, मरणावस्था की व्याप्ति और उसका स्वरूप आज हम नहीं जानते, इसलिए हम उसका महत्व कम न मानें। ___ मरण के बारे में हमारा डर इतना जबरस्त होता है कि मरण क्या है, इसका चिन्तन-मनन करने के लिए जरूरी तटस्थता
और उत्साह हम खो बैठते हैं। हम नहीं मानते कि मनुष्य अगर पूरे निश्चय से कुतूहल को जाग्रत करे, तो कोई भी वस्तु उसके लिए अज्ञात रह सकती है।
आजकल थोड़े एकांकी नाटक हम देखते हैं। पुराने नाटक