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मृत्यु का तर्पण : ३ :: ३५
र्भाव होता है, जिस तरह उन्मेष और निमेष दोनों क्रियाएं मिलकर ही देखने की एक पूरी क्रिया होती है ।
५ / मृत्यु का तर्पण : ३ हत्याग्रह की और सत्याग्रह की दृष्टि से
'मृत्यु का तर्पण' शीर्षक दो लेख पढ़कर एक मित्र ने विनोद में पूछा, “काकासाहेब, आप इस तरह मृत्यु के पीछे क्यों पड़े हैं ?"
मैंने उतने ही विनोद-भाव में जवाब दिया, "क्योंकि वह मेरे पीछे अनजान में न पड़े ! आप मुझसे भी ज्यादा मृत्यु के खैरख्वाह मालूम होते हैं । मृत्यु तो अकेली होते हुए भी सब दुनिया के पीछे पड़ी है और सिर्फ मैं एक आदमी इस मृत्यु के पीछे पड़ा, इतने में आप उस पर दया करके मेरे पास शिकायत करने आये !
"
यह तो केवल विनोद की बात हुई । केवल सच बात तो यह है कि मृत्यु से आदमी इतना डरा हुआ रहता है कि उसका चिन्तन तो क्या, नाम तक सहन नहीं करता । मनुष्य की इच्छा रहती है कि अपने सिर का कर्जा, अपना पाप और अपना मरण, तीनों का, जहां तक हो सके, स्मरण तक टेल जाय । लेकिन असल में इन तीनों का विचार - युक्त स्मरण रहे, इसी में जीवन की सफलता है । जो मरण अवश्यंभावी है, उसी को अगर हम नहीं पहचानेंगे तो हम अपने आपको सुरक्षित या बुद्धिमान कैसे कह सकते हैं ?
मृत्यु का अखण्ड स्मरण रखकर ही जो जीता है, वह अपने जीवन का दुरुपयोग नहीं करेगा । लेकिन जो मृत्यु का स्वरूप ही नहीं समझता और केवल मृत्यु का अंधा डर ही मन में रखता
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