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६६ :: परमसखा मृत्यु - सन्यास लेने का अधिकार ही नहीं है।
चन्द लोग मृत्यु का स्मरण होते ही मायूस और दुःखो बनते हैं। सच देखा जाय तो इसके लिए कोई योग्य कारण है नहीं। सारी दुनिया का ठेका लेकर तो हम नहीं आये। जिस तरह दूर-दूर के देशों की और समाजों की चिन्ता हम नहीं करते, उसी तरह भविष्य काल के बारे में भी हमें तटस्थ बनना चाहिए । अपने चिन्तन के फलस्वरूप जो विचार मन में आये या सलाह देने योग्य कुछ सूझे, उसे दुनिया के सामने धरकर सन्तोष मानना चाहिए। जिस तरह अपने जमाने में हमने पुरुषार्थ किया और समाज की प्रत्यक्ष सेवा की, उसी तरह नई पुरत को अपने जमाने का कब्जा लेने का पूरा-पूरा अधिकार है। उनकी दुनिया उनके हाथ में सौंप कर हमें सन्तोष मानना चाहिए, और अलग होना चाहिए। ____मोहवश होकर मनुष्य को ऐसा नहीं मानना चाहिए कि अपने बाल-बच्चे और उनके बाल-बच्चे ही हमारी जायदाद के उत्तराधिकारी हैं या हमारे प्रेम के अधिकारी हैं। जिस विराट समाज में हम जिये और जिसके पुरुषार्थ से हमने लाभ उठाया वे सब हमारे प्रेम और सेवा के मुख्य अधिकारी हैं। कम-सेकम केवल अपने हित का ख्याल करके भी मनुष्यों को सोचना चाहिए कि घर के नौकर-चाकर अपने सच्चे परिवार हैं । उन्हीं की सेवा के कारण अन्तिम दिन आराम से गुजरने वाले हैं। उनको सन्तुष्ट रखने से, उनकी कठिनाइयां दूर करने से,
आसपास प्रसन्नता का वातावरण रहता है। ___ और एक बात सोचने की है। बुढ़ापा जैसे बढ़ने लगता है, वैसे मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी प्रवृत्ति का विस्तार कम करता जाय। चीजें हाथ में से फिसल जायं, उसके पहले