Book Title: Param Sakha Mrutyu
Author(s): Kaka Kalelkar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Prakashan

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Page 95
________________ ९४ : परमसखा मृत्यु गहरी और असरकारक वस्तु के बारे में विचार ही न करना मनुष्य-जाति को शोभा नहीं देता। मरण तो कुदरत का या भगवान का दिया हुआ श्रेष्ठ वरदान है। इसीलिए तो मनुष्य के जीवन में जिम्मेदारी तथा पवित्रता प्रवेश कर सकती है। मानव-जाति में इन दिनों कहीं भी मृत्यु के बारे में पागलपन सवार नहीं है, इसीलिए तटस्थ भाव से इस विषय का और इस कर्तव्य का चिन्तन होना चाहिए। __यह स्पष्ट है कि पशुओं के बारे में जितनी आसानी से हम निर्णय पर आते हैं, उतनी आसानी से मनुष्य के बारे में निर्णय नहीं कर सकते। लेकिन विचार ही न करने में जड़ता है और धर्महानि है। इस बात को स्वीकार करना ही चाहिए कि स्वेच्छा-मरण मनुष्य के अधिकार की बात है। मनुष्य-जाति को समझना चाहिए कि थकावट और आराम, नींद और मरण अर्थात् निवृत्ति एक अत्यंत कीमती वरदान है। १६ / मृत्यु की कल्याणकारिता ईसाई लोगों के ग्रन्थों में एक वचन बार-बार आता है'द वेजेज़ आफ सिन इज डेथ' इसका सीधा अर्थ होता है मौत पाप का फल है। उनकी यह बात ध्यान में नहीं पाती। पापी लोग ही मरते हैं, पुण्यवान नहीं मरते, ऐसा अनुभव नहीं है । साधु-संत पुरुष, पुण्यवान, परोपकारी और मोक्ष के अधिकारी भी मरते ही हैं। पुराणों में कभी न मरनेवाले सात चिरंजीवियों का जिक्र आता है । वे भी आज कहीं नहीं हैं। ईश्वर के अवतार और ईश्वर के पुत्र सभी मर गये हैं। पाप-पुण्य से जिनका कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे पशु-पक्षी आदि सब प्राणी भी मरते हैं। मरण जैसी सार्वभौम दूसरी चीज है ही नहीं।

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