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जन्म, जीवन और मरण :: ९३ अशोभनीय जीवन-लालसा को तथा मरण टालने की अशोभनीय इच्छा को बुद्ध भगवान 'भव-तृष्णा' कहते हैं, और कायर होकर अथवा झूठे तत्वज्ञान को स्वीकार करके मनुष्य-जोवन विमुख होना चाहे-अात्महत्या करना चाहे तो उसे 'वि-भव तृष्णा' कहते हैं। (भव-विमुख होना सो वि-भव)। एक जमाना था जब हमारे देश में कई बौद्ध 'जोवन दुःखमय है, जीवन निःसार है' ऐसे निर्णय पर पाकर आत्महत्या करते थे, मानो अात्महत्या का छूत का रोग ही फैला था। पश्चिम के ख्रिस्ती लोगों में और उसके पहले के गैरखिस्ती लोगों में वैसा ही पागलपन किसी समय फैला हया था। ऐसी वि-भव तृष्णा के खिलाफ प्रचण्ड प्रचार करना पड़ा था और मनुष्य-जाति ने कानून की शरण लेकर उस पागलपन को आत्महत्या के गुनाह के तौर पर जाहिर किया था। (उसमें मुश्किल इतनी ही थी कि आत्महत्या कर चुकनेवाले को कानून कोई सजा नहीं कर सकता था। उसके रिश्तेदारों को विरासत के हक से वंचित करे और उसके लिए प्रार्थना न करने दे, यह अलग बात है । पर मर चुकनेवाले को तो कुछ भी सजा नहीं हो सकती थी। आत्महत्या का प्रयत्न करने वाले तथा उनमें सफलता प्राप्त न कर सकने वाले दुर्दैवी व्यक्ति पर कानून टूट पड़ता था और निर्दयता से सजा करके उसके जीवन को अधिक दुःखी बनाता था।) अभी-अभी एक चिन्तनशील बहन ने कहा था कि कानून में आत्महत्या के प्रयत्न के लिए जो सजा है उसे निकाल ही देना चाहिए। उस बहन की यह सूचना विचार करने योग्य है, लेकिन हम सहज निर्णय पर नहीं आ सकते। ___ कानून की न्यायता-अन्यायता का विचार करनेवाले और धर्म की दृष्टि से पाप-पुण्य का विचार करने वाले लोगों को तटस्थ भाव से पूर्वाग्रह के दोष को टालकर, मानव-कल्याण का विचार करके मृत्यु के बारे में गहरा विचार करना चाहिए। मृत्यु जैसी