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६२ : परमसखा मृत्यु जीवन को सुधारने का मिला हुआ मौका बेइज्जत होने के डर से मनुष्य खो बैठता है । यह उसकी कायरता है। ऐसी आत्महत्या अलग चीज है और जीवन का कार्य समाप्त हुआ, ऐसा समझकर जीवन-निवृत्त होना अलग चीज है।
बच्चे के जन्म के बाद यदि डाक्टरों का दृढ़ अभिप्राय हो कि बच्चा जीने के लायक नहीं है, तब केवल दयाधर्म से अपना कर्तव्य समझकर डाक्टर लोग माता-पिता को सलाह देते हैं
और उनकी सम्मति लेकर उस बच्चे को जीवन-विमुख करते हैं, उसके प्राण लेते हैं। आज इस बात को समाज-मान्य करवाने के नैतिक प्रयत्न सब जगह हो रहे हैं। इस शुद्ध दलील को स्वीकार करने के बाद तमाम सतर्कता रखकर और सारा जोखिम टालकर जीवित मनुष्यों के लिए, बीमारों के लिये अथवा सब तरह से जीने के अयोग्य लोगों के बारे में समाज ऐसा ही निर्णय करे तो उसमें गलत क्या है ? (स्वार्थवश होकर मांस के लोभ के कारण गाय का वध करना अलग वस्तु है और आश्रम के प्यारे बछड़े को, वह रोगमुक्त नहीं हो सकेगा, ऐसा यकीन हो जाने के बाद, उसकी अन्तिम वेदनाओं को टालने के लिए, दयाधर्म के कर्तव्य के तौर पर, उसकी जिन्दगी कम करके धर्मकृत्य के तौर पर मृत्युदान देना अलग वस्तु है। ऐसे समय पर मरणदान देने से घबड़ा जाना या कर्तव्यच्युत होना ही कायरता है और उसमें धर्मच्युति भी है।) ___ जन्म, जीवन और मरण के बारे में कायर होकर नहीं, जीवन-लालसा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि शुद्ध धर्म-कर्तव्य के तौर पर विचार करने की हमें आदत डालनी चाहिए।
बुद्व भगवान ने जिन अनेक तृष्णाओं की निन्दा की है, उनमें से दो तृष्णानों की तरफ हमें खास ध्यान देना चाहिए । वे हैं भव-तृष्णा और वि-भव तृष्णा । कैसे भी हो, जाऊंगा ही, ऐसी