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१०० :: परमसखा मृत्यु
पर भी ये दलीलें निःसत्व हो गई हैं। इनमें है तो सच्चा विवेक, लेकिन बार-बार कहने से इनका असर बहुत ही कम हो जाता
__सब बाजुओं से सोचने पर मनुष्य को विश्वास होना चाहिए कि मृत्यु सचमुच मित्र ही है । (वह मोच नहीं, किन्तु मीत ही
____ कोई उपन्यास लिखनेवाला जब देखता है कि कथावस्तु जटिल होने से कथा नीरस हो रही है, तब वह उपन्यासकार युक्ति-प्रयुक्ति से पात्रों को मार डालता है। इसी तरह से जीवन-स्वामी भगवान के लिए भी अपनी दुनिया में से प्राणियों को मार डालना उचित होता है और भगवान का उपन्यास तो अनन्त काल तक चलने वाला है। उसमें पात्रों की संख्या अतिमात्रा में बढ़ जाय, यह काम का नहीं है, और जिस तरह उपन्यास पढ़ने वाले उपन्यास का अन्त चाहते हैं, उसी तरह जीवन जीने वाले लोगों के लिये भी उनका अन्त अभीष्ट होता है । (अच्छी-से-अच्छी कविता अथवा भाववाही संगीत भी अनन्त काल तक चले, तो उसे हम मंजूर नहीं करेंगे। सुनने का आनन्द पूरी मात्रा में पाने के बाद हम चाहते हैं कि संगीत अब बन्द हो जाय । अब उसका केवल अनुरणन ही रहे, ताकि हम उसकी जुगाली ही कर सकें और अन्त में उस जुगाली का भी हम अन्त चाहते हैं, उसे भी भूलना चाहते हैं।)
किसी का स्मित अथवा हास्य देख-सुनकर हम प्रसन्न होते हैं; लेकिन अपनी मर्यादा को छोड़कर अगर कोई आदमी हंसता ही रहे तो हम ऊब जायेंगे। उसे पागल कहेंगे और उसका संग टालना चाहेंगे। खाने-पीने की बात भी ऐसी ही है। सुख भी आखिरकार शान्त होना ही चाहिए। दुःख तो शान्त होता ही