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मृत्यु की कल्याणकारिता :: ε५
जिस तरह एक सिक्के की दो बाजुएं होती हैं- आगे की और पीछे की, उसी तरह प्राणियों के जीवन में जन्म और मृत्यु जुड़े हुए हैं । दोनों को हम अलग कर ही नहीं सकते ।
अब अगर कोई यह माने कि जन्म लेना ही दुःख है, संकट है और किसी पाप का फल है, तो जन्म का अन्तिम क्षण मरण भी पाप का फल कहा जा सकता है ।
जो लोग मोक्ष चाहते हैं वे जन्म से और मृत्यु से, दोनों से बचना चाहते हैं, लेकिन उन्होंने जन्म और मृत्यु को पाप का फल नहीं कहा है ।
ऐसे भी लोग हैं, जो मानते हैं, "मनुष्य अगर मनसा, वाचा, कर्मणा ब्रह्मचारी रहे, तो वह हनुमान के जैसा वज्रकाय अथवा वज्रांगबली और अमर हो सकेगा । मनुष्य ब्रह्मचर्य को संभालता नहीं, इसीलिए मृत्यु उसे घेर लेती है ।"
ऐसे लोग कह सकते हैं कि ब्रह्मचर्य को भंग करना ही सबसे बड़ा पाप है । इसीलिए मनुष्य को जरा, व्याधि श्रौर मृत्यु घेर लेते हैं, अन्यथा मनुष्य अजरामर होने के लिए ही पैदा हुआ है ।
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ऐसे लोगों का यह विचार प्यारा है, रोचक है, लेकिन अनुभव सिद्ध नहीं है । आदर्श ब्रह्मचारी भी मर गये हैं और चन्द आदर्श ब्रह्मचारीं तो अल्पायुषी भी साबित हुए हैं ।
हम तो मानते हैं कि हमारे लिए जीवन और मृत्यु दोनों भगवान के एक से वरदान हैं । मरण प्राणियों के लिए अटल है और यही बात सबसे बड़ा प्राश्वासन है । अनन्त काल तक जीते रहना एक बड़ी आफत होगी । अगर स्वाभाविक ढंग से मौत नहीं आयेगी तो मनुष्य अनन्त काल तक जीवन जीने के कारण परेशान होकर आत्महत्या ही करेगा ।
कई आदर्श ब्रह्मचारी अल्पायुषी हुए हैं और इसके विरुद्ध जिनका पिंड प्रथम से मजबूत था, ऐसे विलासी लोग दीर्घायु