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मरण-दान :: ९७ गया है कि हर साल की आत्महत्या की संख्या मामूली तौर पर स्थिर ही रहती है।
ऐसी संख्या बढ़ने-घटने पर समाज-विज्ञान-वेत्ता उसका कारण ढूंढकर बता भी सकते हैं। आत्महत्या अब कोई सामाजिक चिन्ता का विषय नहीं रही।
जब हम मृत्यु के डर का कारण ढूंढ़ते हैं तब एक बात मन के साथ स्पष्ट करनी चाहिए । मौत का डर अलग चीज है और मृत्यु के समय होनेवाली शारीरिक वेदना का डर अलग चीज है। (मैं मानता हूं कि मृत्यु का डर मेरे हृदय से निकल गया है, लेकिन शारीरिक वेदना का डर शायद अभी बाकी है। वेदना से बचने की इच्छा मौजूद होने से उस वेदना से बचने की कोशिश में अवश्य करूंगा। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट होगी। अगर मेरा पांव या कोई अंगुली सड़ने लगी और उसका कोई दूसरा इलाज नहीं रहा, तो मैं उसे कटवाने की सम्मति खुशी से दूंगा, बशर्ते कि उसकी वेदना का अनुभव मुझे न करना पड़े। आजकल के डाक्टर लोग ऐसी मदद हर तरह से कर सकते हैं और मरीज भी खुशी से उसके लिए सम्मति देते हैं।) वेदनारहित मृत्यु को अंग्रेजी में 'युथनेशिया' कहते हैं। यह ग्रीक शब्द है। (दर्द का भान न हो इस उद्देश्य से सारे शरीर को अथवा उसके किसी भाग को बधिर करने की दवा अथवा प्रक्रिया को 'एनेस्थीसिया' कहते हैं।)
मृत्यु के डर में अनेक डर समाये रहते हैं। एक है शारीरिक वेदना का डर, दूसरा है शरीर से यानी जीवन से वियोग होने का डर । तीसरा डर है सगे-सम्बन्धी अथवा इष्ट स्नेहियों से अपना वियोग होने का डर । चौथा है, जो कुछ भी पुरुषार्थ हम करते हैं अथवा जीवन का आनन्द लेते हैं, उसके यकायक कट जाने का डर। इसमें एक पांचवां डर भी हम बढ़ा सकते हैं।