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६० :: परमसखा मृत्यु की-आज के मनुष्य की हिम्मत नहीं होती) कि जीवन-चिन्तन के फलस्वरूप यदि मनुष्य इस निर्णय पर आवे कि अब ज्यादा जीना निरर्थक है तो जीवन का अन्त लाने का मनुष्य को पूरा अधिकार है । मेरा जीना या मरना यदि कुदरत या दैव के हाथ में होता, तो मैं खुराक न खाता तब भी कुदरत मुझे जिलाती । दवाई न लेने पर भी रोग पर मैं काबू पा सकता तथा अपने मृत्यु-समय तक जिन्दा रहता । इसमें कोई शक नहीं कि मृत्यु अवश्यंभावी है, लेकिन वह कब और कैसे हो, यह निश्चित करना काफी हद तक मनुष्य के अपने हाथ में है। इस निर्णय को हम टाल ही नहीं सकते।
कैसा भी जीवन हो, जीना ही चाहिए-इस तरह की जीवन-लालसा जिनसे चिपकी हुई है और जो मृत्यु से भयभीत हैं, उन्होंने अपना यह तत्त्वज्ञान चलाया है कि मर जाना, यह जीवन-द्रोह है, कायरता है। जीवन जैसी पवित्र वस्तु का अंत हम ला ही कैसे सकते हैं ? ___इस दलील का गहराई में उतर कर थोड़ा विचार करना जरूरी है। ___ जीवन की पवित्रता की दलील करने वालों से पूछे कि लड़ाई में हजारों और लाखों लोगों का कत्ल किया जाता है तब आपकी जीवन-पवित्रता कहां जाती है ? किसी पापी गुनहगार को मार डाला जाता है और उसे प्रायश्चित्त करके जीवन को सुधारने का अवसर नहीं दिया जाता तब आपके जीवन की पवित्रता कहां छुप जाती है ?
एक को बचाने के लिए दूसरे को खत्म करना पड़ता है, इस दलील को आगे करके माँ को बचाने के लिए गर्भपात करने में पाप या गुनाह नहीं है, ऐसा यदि आप करते हैं तो हजारों लोगों को जिन्दा रखने के लिए अतिरिक्त जीवों को योग्य