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जन्म, जीवन और मरण :: ८९ अपने भविष्य के लिए मैं खुद जिम्मेदार हूं, उसी तरह मृत्यु की घड़ी को टालना या उसको हटाना काफी हद तक मेरे अपने हाथ में है । ऐसा न होता तो पुरुषार्थ और जिम्मेदारी के लिए अवकाश ही न रहता।
यह कहना कि हरएक मनुष्य मरणाधीन है, हरएक मनुष्य का मरण अवश्यंभावी है, अलग बात है। यह तो तमाम जीवसृष्टि का अर्थात् मानव-जाति का भी अनुभव है । लेकिन इस पर से यह सिद्ध नहीं होता कि मनुष्य अमुक क्षण में ही और अमुक ढंग से ही मरेगा, ऐसा निश्चित है।
अमुक शहर के लोगों का औसत मरण-प्रमाण लगभग निश्चित होता है। यदि शहर के बाशिन्दे स्थायी हों और उनकी जीवन-पद्धति मुकर्रर हो, तो हर साल करीब अमुक संख्या में ही मरण होंगे, इसका हम पहले से अन्दाजा लगा सकते हैं, और वह सच निकलता है। लेकिन यदि नगरपालिका और नगरपिता पुरुषार्थपूर्वक शिशु-पालन में सुधार करें और लोगों के लिए उत्तम खुराक की व्यवस्था करें, रोग-निवारण के इलाज आजमावें और लोगों को सुख-सुविधा के तथा तन्दुरुस्ती के नयेनये साधन उपलब्ध करावें, तो उस नगर का मरण-प्रमाण कितना घटेगा, इसका अन्दाजा भी हम कर सकते हैं, और मरण-प्रमाण की कमी छोटी-सी, नगण्य नहीं होती। इसीसे पता चलता है कि सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, लेकिन मनुष्य-समुदाय भी मृत्यु को काबू में ला सकता है।
इस तरह यदि तत्त्व-चिन्तन के परिणामस्वरूप हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मृत्यु के लिए मनुष्य जिम्मेदार है, यह सिर्फ कुदरत के हाथ की वस्तु और वह भी पहले से निश्चित हुई नहीं होती, तो इस जिम्मेदारी में से एक बड़े निर्णय को स्वीकार करना पड़ता है (जिसको स्वीकार करने की मनुष्य