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जन्म, जीवन और मरण :: ε१
कारणों से खत्म करना पाप कैसे हो सकता है ?
लेकिन फिलहाल तो मैं स्वेच्छा- स्वीकृत मरण की ही बात करता हूं । एक देश के लोगों को ही बचाने के लिए शत्रु की फौज को कत्ल किया जाता है तब कौन-सा पक्ष न्याय का है, उसका विचार या उसकी चर्चा कोई नहीं करता, और विचार या चर्चा करने पर भी अन्तिम निर्णय किसी के हाथ में नहीं होता । अपने देश का शत्रु अत्यन्त पवित्र हो, न्यायनिष्ठ हो, देश के उद्धार के लिए महत्व का काम करता हो तब भी उसको अपने देश का शत्रु समझकर मार डाला जाता है, और समाज बहुधा ऐसी हत्या को मान्यता भी देता है, और यह कितना आश्चर्य है कि फिर भी जीवन की पवित्रता की दलील करते हुए लोग शरमाते नहीं हैं ! मनुष्य को यदि महसूस हो कि उसका अपना जीवन-कार्य पूरा हुआ है, जो करना था, कर लिया, जो टालने जैसा था, सो सब टाला, अब अपने हिस्से में कोई महत्व का कार्य रहा नहीं है, और इसलिए वह अपने जीवन का अन्त लावे, जीवन- निवृत्त हो जाय, तो उसमें क्या दोष ? ( उसके निर्णय में विचार-दोष हो सकता है । और ऐसा विचारदोष गुनहगार को फांसी देने वाले न्यायाधीश के हाथ भी हो सकता है। बीमारों को दवा देने में गलती हो जाने से या शल्यक्रिया करने में गलती होने से रोगी मर जाता है, इसलिए दवा देने का या न्याय देने का काम समाज ने बन्द नहीं किया है, तो मनुष्य का जीवन-निवृत्त होने का जन्मसिद्ध अधिकार अमान्य क्यों किया जाय ? )
मनुष्य के हाथों गुनाह या पाप हो जाय तब श्राबरू बचाने की दृष्टि से मरण को न्यौता देने के अधिकार का मनुष्य उपयोग करे तो वह कायरता है । उसे हम श्रात्महत्या कहते हैं, क्योंकि गुनाह या पाप हो जाने के बाद प्रायश्चित्तं करने का तथा