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जन्म, जीवन श्रीर मरण ८५
रहा है ?” राजा ने उद्विग्नता से जवाब दिया, "काहे का काम - विकार ? मौत की चिंता से इतना त्रस्त हूं कि दूसरा कुछ सुकता ही नहीं । सब विकार ऐसे गायब हो गए हैं, मानो कभी थे ही नहीं । अब एक ही बात बताइये कि इस मौत से बचने का कोई उपाय है ? और कम-से-कम मन शान्त कैसे रहे ?”
साधु ने हँसकर कहा, “मैंने आपको कम-से-कम इतना तो आश्वासन दिया कि छह महीने तक मौत नहीं आयेगी । तो मरण के चिंतन से आपका जबरदस्त काम-विकार एकदम गायब हो गया । मैं तो मरण का सतत चिंतन करता हूं । मौत किसी भी क्षण आ सकती है। छह महीनों का आश्वासन मुझे कौन देगा ? जहां मरण का स्मरण और सान्निध्य कायम है, वहां काम-विकार कैसे सता सकता है ? आपको आपके सवाल का जवाब मिल गया, राजन ! जो औषध आप लेते हैं, वही मैं भी लेता हूं । दोनों के शरीर भी एक-से हैं । फर्क सिर्फ इतना ही है कि अनुपान में मैं मरण के स्मरण का सेवन करता हूं।" जीने के मोह में मरण को प्रयत्नपूर्वक भुलाकर मानव ने बहुत कुछ खोया है । पाया क्या है ? इसका हिसाब वही दे । अप्रेल, १९६५
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१५ / जन्म, जीवन और मरण
इहलोक और परलोक की तुलना करना, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की चर्चा करना, यह तो मनुष्य का कल्पना - विलास है । इसमें से मानव-जाति ने बहुत कुछ पाया है । आत्मा और परमात्मा के चिन्तन के साथ ये कल्पनाएं सम्मिलित हैं हो । लेकिन उनके बारे में मनुष्य निश्चित रूप से जाने या न जाने, इहलोक के हमारे जीवन के तीन तत्त्वों के बारे में मनुष्य के पास स्पष्ट कल्पना होनी ही चाहिए और उसमें से निष्पन्न कर्तव्य का