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८२ :: परमसखा मृत्यु हम एक-रस बनें। इतनी रसिकता हमारे चित्त में होनी ही चाहिए । हरेक अकस्मात् के साथ अगर हम रोने बैठे, या हिम्मत हार गए तो जीवन जियें किसलिए? कितनी-कितनी तैयारी करके एक प्रयोजन सिद्ध करने चले और यकायक वह सारा विफल हो गया, इसका भी तो अनुभव चारित्र्य-गठन के लिए, मनुष्य-जीवन के लिए, जरूरी है।
जीवन के लिए मरण आवश्यक है, अनिवार्य है। मरण के बिना जीवन की पूर्ति नहीं हो सकती और जीवन में प्रगति के लिए, नव-नव उन्मेष के लिए, अवकाश ही नहीं रहेगा। मरण के चमत्कार के बिना जीवन जड़रूप और नीरस बनेगा। मरण है, इस वास्ते ताजगी है, उत्साह के लिए अवकाश है। हम तो यहां तक कहेंगे कि मरण के बिना जीवन में आस्तिकता भी नहीं टिकेगी।
__ मरण के बारे में और एक खूबी है, जिसकी तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान गया होगा। वह है मरण रूपी ज्ञान का कौमार्य । हमारे सामने कितने ही लोग मर जाते हैं, किन्तु उनके मरण का अनुभव हम नहीं कर सकते । लोग जीवन जीते हैं। हम भी जीते हैं। इसलिए औरों के जीवन का अनुभव हमें हो सकता है। तरह-तरह के लोगों के चित्र-विचित्र जीवन का निरीक्षण करके और चंद लोगों की जीवन-यात्रा में सहयोग करके हम अपने जीवन को समृद्ध कर सकते हैं। प्रभावशाली लोगों का जीवन, संस्कार-सम्पन्न स्वराज्य का जीवनक्रम और छोटे-बड़े राष्ट्रों का इतिहास पढ़कर, समझकर, हम जीवन-समृद्ध बनते हैं। किन्तु किसी के भी मरण का साक्षात्कार हमें हो नहीं सकता। कुमार या कुमारी की जब शादी होती है, तब वे अननुभूत अनुभव का पहली ही दफा साक्षात्कार करते हैं।