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८० :: परमसखा मृत्यु उत्कट रीति से जाग्रत रहे तो मनुष्य बहुत-कुछ गलतियों से और गुनाहों से अपने को बचा सकेगा। उसके जीवन में गहराई प्रायगी। फिजूल बातों में वह अपने दिन बरबाद नहीं करेगा,
और जीवन को कृतार्थ बनाने के उसके प्रयत्न में उसे सफलता मिलेगी। जब मरण अनिवार्य है, तब उसी को हम अपने जीवन का चौकीदार क्यों न बनावें? जीवन जीने का अच्छा तरीका यही है कि मनुष्य मरण को अपने साथ लेकर उसके साथ बातचीत करते-करते जीवन यात्रा चलावे। ___'जीवन के अंत में मरण तो आने वाला है ही। तो अभी से अथवा हमेशा के लिए उसका स्मरण करके जीने का आनंद किरकिरा क्यों करें ?' यही वृत्ति होती है। सब जीने वालों की। इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि मरण को हम पहचान ही नहीं सकते और उसका डर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है। ___मरण के ख्याल से जीवन का आनंद किरकिरा क्यों होना चाहिए ? दिन के बाद रात आती है। दिनभर जगने के बाद रात को हम सोते हैं, तब हम न रात से डरते हैं, न नींद को भूलना चाहते हैं । ऐसा ही लगता है कि नींद के, पाराम के हम हकदार हैं। उसका स्मरण हमें प्यारा लगता है और रात के आनंद के हम अच्छे-अच्छे काव्य भी लिखते हैं । मरण के बारे में हम ऐसा क्यों न करें ? जीवन-मरण की कुदरत ने तो अनिवार्य जोड़ी बनाई है। इनमें से जीवन का पुरस्कार और मरण का तिरस्कार, ऐसा भेद हम न करें। दोनों के प्रति हमारा एक सा रुख रहे, इसी में खैरियत है। हम मरण को भूल जाने की प्राणपण से चेष्टा करें। और वह दबे पांव हमारा पीछा करे और यकायक हमारी चोटी पकड़े, हम छूट जाने का यत्न करें और वह हमें रोते-रोते ही उठाकर ले जाय, यह दृश्य