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मरण का साहचर्य :: ७६ नाभिनन्देत मरणम् नाभिनन्देत जीवितम् प्राचीन और अर्वाचीन जीवनाचार्यों के वचनों से लाभ उठाकर स्वस्थ चित्त से मरण का रहस्य नचिकेता की श्रद्धा से ढूंढ़ना चाहिए। उसके बाद ही दुनिया में मरणभय से जो महापाप किये जाते हैं और युद्धरूपी ताण्डव लीला चलती है, उन्हें शान्त करने का रास्ता मिलेगा। जून, १९५८
१३ मरण का साहचर्य
किसी आदमी ने कर्ज लिया। आसानी से मिला, इसलिए ज्यादा लिया और खर्चा करते कोई संकोच नहीं रखा। बाद में देखा कि कर्जा चुकाने की ताकत या गुंजाइश है नहीं । दिनरात कर्जे की चिन्ता इतनी बढ़ी कि नींद हराम हो गई । कर्जा चुकाने का कोई रास्ता जब न दीख पड़ा, तब उसने अपना रुख ही बदल दिया। सिर पर कर्जा है, यह बात ही भूलने की कोशिश उसने की। उसी में आसानी थी। कर्जे की बात ही ध्यान से बाहर रहने लगी। अब अगर किसी ने, खास करके उसके हिसाबनवीस ने, कर्ज का स्मरण कराया तो बड़ा नाराज होता था। कर्जे का जिक्र तो क्या, स्मरण भी टालना, यही उसकी जीने की तरकीब हो गई।
भूल जाने से जिस तरह कर्जा टलता तो नहीं, उसी तरह मनुष्य अपने मरण की बात चाहे जितनी भूलने की कोशिश करे, मरण टलता ही नहीं। लोग कहते हैं, 'कर्जा और मौत दोनों की यात्रा दिनरात चलती ही रहती है।
मरण की बात, मरण का स्मरण, टालने से मनुष्य ने कभी कुछ नहीं पाया, बहुत-कुछ खोया है । मरण का स्मरण अगर