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नचिकेता की श्रद्धा से :: ७७
का कुछ ख्याल मिलता है सही लेकिन साधना तो हरेक को अपने ही ढंग से करनी पड़ती है । और नहीं आता ।
किसी का ढंग काम
युवा नचिकेता ने प्रत्यक्ष मृत्यु के घर पर जाकर उसी से मौत का रहस्य पूछा और यमराज ने उसकी श्रद्धा-निष्ठा देख कर अपना सारा रहस्य उसे समझाया । हजारों बरस हुए, देशपरदेश के असंख्य लोग श्रद्धा से वह पढ़ते हैं और उन पर मनन करते हैं । यमराज ने कहा कि शरीर के नाश के साथ बहुत-सी चीजें चली जाती हैं; लेकिन आत्मा रहती है । और मनुष्य का जैसा कर्म, जैसा उसका ज्ञान और जैसी उसकी प्रज्ञा होती है वैसा ही उसे नया जन्म मिलता है ।
यथाकर्म, यथाश्रुतम्, यथाप्रज्ञा, वह नये जन्म में अपनी साधना आगे चलाता ही है । इतना स्पष्ट होते हुए हरेक व्यक्ति को मृत्यु का रहस्य समझने के लिए अपनी स्वतन्त्र साधना करनी पड़ती है और उस साधना के लिए जीवन की कीमत देनी पड़ती है ।
जीवन पर जब मनुष्य चलते हैं तब धीरे-धीरे वहां पगडण्डी बनती है। जानवर या गाड़ियां जाती हैं, तब भी वहां रास्ते बनते हैं । लेकिन जब आकाश में पक्षी - और अब आकाशयान -जाते हैं तब उनके रास्ते की निशानी कहीं भी नहीं रहती । अध्यात्म-साधना की बात ऐसी ही है । इसकी पगडण्डी भी नहीं पड़ती । हरेक को अपना रास्ता नये ही सिरे से खोज निकालना पड़ता है ।
मृत्यु के रहस्य का भी वैसा ही है । प्राचीनकाल से लेकर मॉरिस मेटरलिंक या बण्ड रसेल तक हरएक ने अपने-अपने ढंग से उसके बारे में सोचा है, उसकी विचिकित्सा भी की है, लेकिन मृत्यु का धर्म प्रति सूक्ष्म, अणु और अज्ञेय है ।