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७६ : परमसखा मृत्यु करके अपने व्यापार का बड़ा विस्तार किया, लेकिन बूढ़ा होने पर जब उसका वहां का आकर्षण कम हो गया और स्वदेश आने की इच्छा हुई, तब उसने वहां की सारी प्रवृत्ति समेट ली। देना-पावना चुका दिया और अपनी सारी कमाई इकट्ठी करके वह भारत लौटा । मृत्यु का भी वैसा ही है। जब प्रवृत्ति अनहद बढ़ती है और साधना के तौर पर काम नहीं आती, तब उसका सारा फल इकट्ठा करके नये जन्म की नई प्रवृत्ति, नई साधना मनुष्य शुरू करता है। इसे एक तरह से मृत्यु कह सकते हैं। लेकिन इसके लिए दुःख नहीं करते। एक स्थान छोड़ने का मामूली अल्पकालीन दुःख जरूर रहता है, लेकिन वह किसी को रोकता नहीं।
जेल में रहते वहां के कई लोगों से परिचय होता है । कुछ स्नेह-सम्बन्ध भी बन जाता है । जेल से निकलते, विदाई के समय दुःख भी होता है। लेकिन जेल से मुक्ति पाने का आनन्द उससे कम नहीं होता। इहलोक का जीवन पूरा करते मृत्यु का जो दुःख होता है-मरने वाले को और औरों को-वह ऐसा ही होना चाहिए। अप्रैल, १९५७
१२ / नचिकेता को श्रद्धा से
श्री रामकृष्ण परमहंस ने कालीमाता से उसका रहस्य पूछा, "माता ! तुम सचमुच हो या नहीं ?" माता का रहस्य समझने के लिए उन्होंने रो-रोकर दिन बिताये। अन्त में उन्हें माता का रहस्य मिल गया। उन्हें शान्ति मिली। उनके पहले भी कई भक्तों ने इसी तरह रहस्य पाने की साधना की होगी, लेकिन एक की साधना दूसरे की मदद में नहीं आती। रास्ते