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मृत्यु का रहस्य : १ . ७१ मेधावी मनुष्य कहता है कि जिह्वालौल्य को क्षणमात्र तृप्त करने के लिए अगर मैं अपथ्य आहार या अति आहार करूंगा तो दीर्घकाल तक मुझे बीमार रहना पड़ेगा और मैं अरोग्यानन्द और जीवनानन्द से वंचित रहूंगा। इसलिए मैं अपथ्य सेवन नहीं करूंगा। संयम के द्वारा जो उत्कट जीवनानन्द प्राप्त होता है, उसी को लूंगा। मरणोत्तर जीवन का जिसे ख्याल है और जिसको इस बात की जाग्रति और और स्मृति रहती है, उसीका जीवन शुद्ध और समृद्ध होता है। __ साम्पराय में स्थूल देहगत जीवन का अवकाश नहीं रहता। मनुष्य अपने समाज में ही जोवित रह सकता है और उस जीवन में उसका पुरुषार्थ अथवा प्रेरणामय जीवन बढ़ता ही जाता है । इस्लाम में एक सुन्दर कल्पना पाई जाती है। किसी मनुष्य ने मुसाफिर के लाभार्थ रास्ते के किनारे एक कुनां खोदा । उसके संकल्प और परिश्रम के अनुरूप इस शुभकर्म का (पूर्त का) उसे पुण्य मिला । अब दिन-पर-दिन जितने मुसाफिर उस कुंए से लाभ उठाते हैं, उतना इस आदमी का सबाब (पुण्य) जाता है। अगर यात्रियों का रास्ता बदल गया और लोगों ने इस रास्ते जाना छोड़ दिया तो पुण्यकारी का पुण्यसंचय ज्यादा नहीं बढ़ेगा । पुण्यकारी का सबाबमय जीवन-पुण्य-जीवनबढ़े या घटे, समाज के हाथ में है । लोग अगर उसे याद करते रहे तो उसकी मरणोत्तर आयु दीर्घ होगी। लोग उसे भूल गए, उसके काम का असर मिट गया तो उसके साम्पराय की मियाद खत्म होगी। . अब सवाल यह आता है कि अगर मरण के बाद हमारा जीवन सामाजिक स्वरूप का ही रहनेवाला है तो मरणपूर्व के 'इस जोवन में हम समान-जीवन ही व्यतीत क्यों न करें ? स्वार्थवश संकुचित होकर और इन्द्रियवश होकर प्रमत्त जीवन,