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मृत्यु का तर्पण : ३ : ३७ अन्याय का प्रतिकार, और यह प्रतिकार अन्तिम रूप में दो ही ढंग से हो सकता है-हत्याग्रह से या सत्याग्रह से । हत्याग्रह में मरने की तैयारी और मारने की तत्परता बढ़ानी पड़ती है
और सत्याग्रह में केवल मरने की। दोनों का सम्बन्ध मृत्यु के साथ आता ही है। इसलिए इस जमाने में हिंसावादियों को तथा अहिंसावादियों को मृत्यु का तर्पण करना ही होगा, अर्थात् मृत्यु का एक स्वरूप यथार्थतया समझकर मृत्यु से हम लाभ कैसे उठावें और मृत्यु का दुरुपयोग कैसे बचावें, यह सोचना ही पड़ेगा। जीना और मरना, जीवन के दो पहलू होने से इन दोनों को एक साथ पहचान लेना जीवन-सिद्धि के लिए परम आवश्यक है। ___ एक दिन एक फ्रेंच विद्वान से जीवन की चर्चा छिड़ गई। उन्होंने कहा, "किसी को मारे बिना हम जी नहीं सकते""लिविंग इज किलिंग" । उन्होंने बड़ी वक्तृता के साथ बताया कि हम सांस लेते हैं, इसमें भी हत्या करनी पड़ती है। खाते हैं, वह भी हत्या है-फिर वह वनस्पति की हो या किसी पशु-पक्षी इत्यादि की। उन्होंने यह भी बताया कि समाज में एक वर्ग दूसरे वर्ग को निचोड़ करके ही जी सकता है। हर क्षेत्र में अपना ही सिद्धान्त कैसे चरितार्थ होता है, यह बताकर, अन्त में बड़े जोश ने साथ उन्होंने कहा, "इसलिए मैं कहता हूं कि हम बिना मारे जी नहीं सकते।” ।
उस प्रश्न का प्रतिवाद तो हो नहीं सकता था। मैंने उनकी बात को स्वीकार करके कहा, “इसमें शक नहीं कि जीने का अर्थ ही होता है मारना । जीवन का यह सत्य एकरूप है, और
आपने उसे सिद्ध किया है। लेकिन जीवन का स्वरूप यह कोई जीवन का धर्म नहीं हो सकता । जीवन का धर्म आपको मुझसे लेना पड़ेगा। कम-से-कम मारना, कम-से-कम हिंसा करना, यही जीवन की कृतार्थता है, यही जीवन-धर्म है।"