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४८ :: परमसखा मृत्यु
सेवा करके असेवा के दोष में न फंसना, यह है मनुष्य का धर्म । इस धर्म को यथार्थ रूप से समझने के लिए सेवा-धर्म के रहस्य को अच्छी तरह समझना चाहिए।
किसी भूखे को अन्न देना, प्यासे को पीने के लिए पानी या शरबत देना, थके हुए को आराम और आहार देना, डरे हुए को अभयदान देना, हारे हुए को आश्वासन और प्रोत्साहन देना, मरीजों को दवा देना और पथ्य का प्रबन्ध करना, शरणागत को आश्रय देना, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की इच्छा रखनेवाले को कन्या देना, जिज्ञासु को ज्ञान देना, उत्कट साधक को साधना बताना, पुरुषार्थी को सहयोग देना, प्रतिज्ञा-दुर्बल को वचन-पालन या व्रत-पालन में मदद करना, निद्रालु को समय पर जगाना, प्रमादशील को खबरदार करना इत्यादि सेवा के अनेक प्रकार हैं। अन्नदान, अभयदान से लेकर ज्ञानदान और सहयोगदान तक अनेक प्रकार के दानों द्वारा हम सेवा कर सकते हैं। इस दानवृत्ति में प्रेम-भाव ही प्रेरक होता है। जिसको कुछ भी दान देते हैं, उसका भला करने की ही कामना उसमें होती है।
अब सवाल उठता है किसी जीव को जब जीना असह्य होता है और जीने के कोई मानी ही नहीं रहते, ऐसी हालत में उसे अगर मरण की जरूरत हो तो वहां मदद कर सकते हैं या नहीं ? महादजी सिंधिया के समय का इतिहास पढ़ते समय एक बात नजर आई थी, जिसका जिक्र इससे पहले हो चुका
___क्या उसे हम खून कह सकते हैं ? मैं तो कहूंगा कि मरणदान का यह विशुद्ध उदाहरण है । उस राहगीर ने सत्कर्म ही
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