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५२ :: परमसखा मृत्यु
सकता है, न विचार - पूर्वक अपना अभिप्राय बांध सकता है, न अपनी राय प्रकट कर सकता है । इसलिए जिस तरह छोटे बच्चों के बारे में मां-बाप या पालक को ही सबकुछ तय करना पड़ता है, उसी तरह पालतू जानवरों के बारे में भी तय करने का मालिक का अधिकार है ।
अगर सब मनुष्यों की नीयत अच्छी होती तो मनुष्य को मरण- दान देने के बारे में भी सवाल आसान हो जाता । अगर मरीज अथवा मरण-दान का प्रार्थी स्वयं कहता है कि मुझे मरण दे दो, समाज यानी समाज के प्रतिनिधि भी मान्य करते हैं कि प्रसंग मरण-दान के योग्य है तो गंभीरता से सोचने के लिए कुछ समय देकर उसके बाद मरण - दान का औचित्य स्वीकार करके इतनी सेवा हो सकती है।
लेकिन मनुष्य समाज में आदमियों के पारस्परिक सम्बन्ध बड़े जटिल होते हैं । किसी की किसी के साथ छुपी दुश्मनी होती है; किसी के मरण से दूसरे किसी को अार्थिक या अन्य किस्म का लाभ हो सकता है या अधिकार प्राप्त हो सकता है । जिनजिन हेतुत्रों से एक मनुष्य दूसरे का खून कर सकता है, उनउन हेतु से प्रेरित होकर मनुष्य चालबाज़ी कर सकता है और मरण-दान की योग्यता कृत्रिमता से सिद्ध कर सकता है | इसलिए मनुष्य को मरण-दान देने के शुद्ध और स्पष्ट प्रसंग और उनका औचित्य मान्य करते हुए भी मरण- दान की सम्मति देना खतरनाक है ।
इसलिए समाज कहेगा कि मानवीय संस्कृति की आज की हालत में, किसी भी सूरत में, मरण-दान के लिए सम्मति न देना ही अच्छा है । व्यवहार की दृष्टि से यह निश्चय या नीति अनुचित नहीं है । लेकिन शुद्ध, पवित्र सेवा, धर्म के तकाजे की हम अवहेलना भी नहीं कर सकते। किसी आदमी के बीमार
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