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५६ :: परमसखा मृत्यु
हार्य सेवा के रूप में अपनी लड़की को जो मरण-दान दिया, उसके काज़ी हम नहीं बन सकते ।
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मनुष्य स्वयं अपनी सारी हालत सोचकर गम्भीरता पूर्वक मरण की इच्छा करे और स्वेच्छा मरण उसके लिए शक्य न हो तो उसकी प्रार्थना पर उसे मरण-दान किस हालत में दिया जा सकता है, यही सोचने का मुख्य विचार है ।
और उसके साथ यह भी सोचना पड़ेगा कि अन्तिम निर्णय करने की सत्ता किसे हो ? शायद जीवन-शास्त्र में पारंगत कोई तबीबी प्रादमी, उच्चकोटि का डाक्टर, कानून को जानने वाला कोई अच्छा न्यायाधीश, सामाजिक धर्म और अध्यात्म को पहचानने वाला कोई धर्मपरायण व्यक्ति और मरीज या श्रातुर के निकट के प्रेमी और सम्बन्धी, ऐसे लोगों की एक समिति बनाकर उनकी राय से निर्णय करना ठीक होगा ।
मरण - दान के प्रसंग समाज में विरले होते हैं । इसलिए ऐसी समिति भी खास किसी एक प्रसंग के लिए ही नियुक्त करनी पड़ेगी । ऐसे प्रसंग भले विरले हों, लेकिन उनका योग्य इलाज करने से मानवीय संस्कृति एक कदम आगे बढ़ेगी और जीवन-मरण के बारे में आज जो बुद्धि का राज चलता है, वह दूर होगा । अक्तूबर, १९५६
1 अनायास मरर
स्वेच्छा मरण और मरण-दान इन दो सवालों के साथ सम्बन्ध रखने वाला तीसरा सवाल है अनायास मरण का । सामान्य तौर पर माना जाता है कि मनुष्य हर तरह का दुःख सहन करके भी जीना ही पसन्द करता है; लेकिन ऐसे भी
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