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मरण-दान :: ५५
के साथ सहमत होकर कहें कि पिता ने जो किया सो अनुचित किया ? या पिता के हृदय में प्रवेश होकर कहें कि प्रेम-धर्म, सेवा-धर्म और समाज-धर्म, समझने वाला दूसरा कुछ कर ही नहीं सकता। पिता ने किया सो योग्य ही किया।
उन दिनों अखबारों में जब इस किस्से के बारे में मैंने पढ़ा तब मेरे मन में जोरों से 'भवति न भवति' चली । एक विचार मन में आया :
पिता ने जो कुछ किया, तीस वर्ष तक लड़की की सेवा की, उसमें सबसे प्रधान भाव उत्तरदायित्व का था। 'मैंने जिस जीव को जन्म दिया, उसकी सेवा करना मेरा धर्म है।' पितृ-प्रेम का हिस्सा भी उनमें था, लेकिन क्या जो स्वयं पिता नहीं है, ऐसे लोग केवल मनुष्य-प्रेम के कारण और सामाजिक उत्तरदायित्व के ख्याल से उस पिता के जैसी सेवा नहीं कर सकते? हमने माना कि लाखों में इस तरह से सेवा करने वाला एक भी परोपकारी आदमी नहीं मिलेगा। लेकिन हरएक देश में, हरएक समाज में, हरएक धर्म में ऐसे साधु-सन्त पैदा हुए हैं, जो केवल शुद्ध प्रेम से इस पिता से भी अधिक सेवा कर सके हैं। पिता ने अपनी लड़की का सारा किस्सा समाज के सामने और धर्मपरायण लोगों के सामने क्यों न रक्खा ? जिसने स्वयं लोकोत्तर सेवा की, वह मनुष्य-हृदय के बारे में इतना नास्तिक क्यों हुआ ? उसने क्यों माना कि उसका समानधर्मा दुनिया में एक भी मिलने वाला नहीं है ? ___मन में यह विचार उठा तो सही, लेकिन मन में दूसरा भी विचार छाया कि स्वस्थ स्थिति में इस तरह से आदर्श-निर्णय की बात सोचना आसान है। पिता की जगह हम होते तो क्या करते, यह भी तो एक सवाल है। उसने अन्तिम और अपरि