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श्रनायास मररण : ५७
लोग हैं, जिनका मन मरण के लिए हमेशा तैयार रहता है परन्तु वे शारीरिक वेदना सहन करने को तैयार नहीं होते । जैसे नींद आती है, वैसे ही अगर मरण आता हो, तो उन्हें तनिक भी एतराज नहीं होगा ।
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चन्द लोग कहते हैं, शरीर से प्राणों का अलग होना इतना कष्टकर नहीं है । मनुष्य को जो मृत्यु का भय रहता है, वह मानसिक होता है । जिसके द्वारा सुख-दुःख हो सकता है, जीवन का अनुभव और जीवन की साधना भी जिसके द्वारा होती आई, उस शरीर को छोड़ने के लिए मन तैयार नहीं होता । अपना अस्तित्व मिटाना यह कल्पना ही मनुष्य के लिए भयावह होती है । स्त्री- पुत्रादि सब इष्ट मित्रों को और सम्बन्धियों को छोड़ जाना यह भी उन्हें कष्टप्रद होता है । कई लोगों को अपनी सारी जायदाद छोड़ते प्राणान्तक दुःख होता है । जिन लोगों ने अपने जीवन काल में कुछ महत्कार्य करने का संकल्प किया होता है, उनको अपना कार्य अधूरा छोड़कर जाते महद् दुःख होता है ।
इस मानसिक दुःख की कोई दवा नहीं है । जो गोताधर्मी है, वेदान्त को जानता है, जिनके स्वभाव की बुनियाद में आस्तिकता है, उसे ऐसा मानसिक दुःख हो नहीं सकता । आत्मा अमर है, संकल्प शक्ति सर्व-समर्थ है, जन्म-मरण की परम्परा चलती ही है, एक जन्म में जो न हुआ, उसे पूरा करने के लिए दूसरा जन्म मिलनेवाला ही है, इस तरह की जिसकी श्रद्धा है, उसे मानसिक दुःख होने का कोई कारण नहीं ।
जिन व्यक्तियों को समाज की सनातनता पर विश्वास है, उन्हें यह आश्वासन जरूर होता है कि जो काम मुझसे नहीं हुआ, उसे सिद्ध करने वाले दूसरे लोग कहीं-न-कहीं और कभीन-कभी उत्पन्न होंगे ही । 'कालोह्ययम् निरवधिर् विपुला च