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मरण-दान :: ५३
होते हुए भी उसे दवाई न देना, उसकी चिकित्सा न करना, यह जैसी असामाजिक वृत्ति है, कठोरता है, गुनाह है, उसी तरह जहां मरण-दान सर्वोत्कृष्ट सेवा है, वहां उससे मुंह मोड़ना आज की मानव-संस्कृति का ख्याल करते हुए गुनाह है, कर्तव्यच्युति है। कुछ साल पहले घटी हुई एक प्रत्यक्ष घटना का थोड़ा विवेचन यहां प्रस्तुत है। मैं भूल गया हूं, घटना इंग्लैंड की थी या अमरीका की। एक मनुष्य की पत्नी ने बच्ची को जन्म दिया और वह मर गई । पिता ने देखा कि बच्ची अंधी और बहरी है। आगे जाकर मालूम हुआ कि लड़की गूंगी भी है। पोलियो या ऐसे ही कुछ रोग होकर लड़की के पांव भी गये। पिता ने अपना उत्तरदायित्व समझ कर बड़े प्यार से और लगन से लड़की की परवरिश की। ____ अब हम सोच सकते हैं कि जो लड़की जिन्दगी में दुनिया का कुछ देख नहीं सकती, सुन नहीं सकती, जिसके पास समझने के लिए या सोचने के लिए भाषा नहीं है, उसके स्वभाव का विकास कैसे होगा! जानवरों के कम-से-कम आंख-कान होते हैं, इसलिए परिस्थिति को कुछ हद तक समझ सकते हैं । प्यार और सेवा भी समझ सकते हैं। यहां तो अमीबा जैसी हालत । खाना-पीना और जीना। लेकिन लड़की के दिमाग भी था, जिसका कुछ भी विकास न हो सका। ऐसी हालत में लड़की के स्वभाव की भी कल्पना हम कर सकते हैं।
पिता ने अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़ी बहादुरी और असाधारण निष्ठा से लड़की की सेवा की। अब लड़की कुल तीस बरस की हो गई और पिता वृद्ध होकर पंगु बन गया। अपने को संभालना ही उसे दूभर हो गया। उसने देखा कि अब वह इस दुनिया में थोड़े ही दिन का मेहमान है। लड़की को चिन्ता तो थी हो । पिता के मरने के बाद गूंगी, बहरी और