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स्वेच्छा-मरण :: ४३
करने के लिए, जीव-सेवा के लिए, आत्म-चिन्तन और आत्मप्राप्ति के लिए जितना आवश्यक हो, उतना तो हम अवश्य जियें, लेकिन ऐसा प्रयोजन न रहने पर शरीर-पालन की प्रवृत्ति से हम निवृत्त हो जायं, यही सच्चा धर्म है।" ___ इस तरह का विचार जैनियों ने कर रक्खा है। भगवान पार्श्वनाथ ने इस धर्म को स्वीकार किया है । जैन-परिभाषा में इसे 'मारणान्तिक सल्लेखना' कहते हैं। मरण की प्राप्ति हो जाय तबतक, शरीर को पोषण न देना यानी उपवास करके शरीर को छोड़ देना, यही इसका अर्थ है।
इसे हम आत्महत्या न कहें। निराश होकर, कायर होकर या डर के मारे शरीर को छोड़ देना, यह एक किस्म की हार ही है। उसे हम जीवन-द्रोह भी कह सकते हैं। सब धर्मों ने आत्महत्या की निन्दा की है, लेकिन जब मनुष्य सोचता है कि उसके जीवन का प्रयोजन परिपूर्ण हुआ है, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं रही है, तब वह प्रात्म-साधना के अन्तिम रूप के तौर पर अगर शरीर छोड़ दे तो वह उसका हक है। मैं स्वयं व्यक्तिशः इस अधिकार का समर्थन करता हूं। मैं जानता हूं कि इस चीज का दुरुपयोग हो सकता है। लेकिन ऐसी कौन-सी अच्छी चीज है, जिसका दुरुपयोग नहीं हो सकता ? दुरुपयोग के डर से अच्छी और सच्ची चीज का सर्मथन न करना एक बड़ी गलती होगी।
अब जो स्वेच्छा-मरण के साथ एक-दो सवाल संलग्न हैं, उनका विचार भी हम करें । एक विचार है सती की प्रथा का या सहगमन का। आज इस चीज का कोई समर्थन नहीं करता। बाणभट्ट के साथ मैं भी कहता हूं कि यह 'मौर्यस्खलित' है। लेकिन इसके पीछे की भावना को हम तटस्थ भाव से सोच सकते हैं। पति की मृत्यु के बाद पति के घर में प्रतिष्ठा