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३४ : परमसखा मृत्यु ___ बंगाल में एक जगह पानी खराब होने के कारण लोगों में बीमारी फैली हुई थी। वहां लोगों की सेवा करने के लिए संन्यासियों का एक जत्था जा पहुंचा । उन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ लोगों की सेवा की। लेकिन वे मामूली तालाब का पानी नहीं पीते थे। अपने लिए उन्होंने पानी का स्वतंत्र बन्दोबस्त किया था। अगर वे सोचते-“जहां हजारों लोगों को निर्दोष शुद्ध जल नहीं मिलता है, वहां हमें अपना अलग प्रबन्ध करने का क्या अधिकार है ? हम भी वही पानी क्यों न पीयें, जो गांव के हजारों और लाखों लोग पीते हैं ?" तो उनके मन में पूरी-पूरी सहानुभूति होते हुए भी वे लोगों की सेवा नहीं कर पाते । वे भी बीमारी के शिकार और दूसरों की सेवा के मुहताज बन जाते।
अगर वही सन्यासी सेवाभाव को भूल जाते और अपनी जान बचाने के लिए बीमारी के स्थान से कोसों दूर भाग जाते तो जिन्दा रहते हुए भी उनका जीवन विफल हो जाता। जबतक जीकर सेवा हो सकती है, तबतक जीने की कोशिश करना,
और जहां बलिदान से ही सेवा हो सकती है, वहां जीने का मोह छोड़कर शरीर के विरुद्ध ही साधना करना, यही जीवनसाफल्य है।
जो किसी भी हालत में जीना चाहता है, उसकी शरीरनिष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो जीवन से ऊबकर अथवा केवल मरने के लिए ही मरना चाहता है, उसमें भी विकृत शरीरनिष्ठा है; यह हमें पहचान लेना चाहिए । जीवन न तो सुखमय है, न केवल भाररूप है। जीवन एक साधना है। इतना दर्शन जिसे हुआ, वही सच्चा दर्शन-शास्त्री है । जो मरण से डरता है और जो मरण ही चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य नहीं जानते । व्यापक जीवन में जीना और मरना दोनों का अन्त