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मृत्यु का तर्पण : २ :: ३३ भी है । आत्महत्या करने से हम मानते हैं कि हमने कारागृह का नाश किया। लेकिन वास्तव में हम मुक्त होने के अच्छेसे अच्छे साधन का ही नाश करते हैं । दवा की बोतल फोड़ देने से हम रोग मुक्त थोड़े ही हो सकते हैं !
जीना और मरना दोनों का उपदेश तत्त्वज्ञ नहीं करेगा । जबतक यह शरीर मुक्ति का साधन हो सकता है, तबतक अपरिहार्य हिंसा को सहन करके भी उसे जिलाना चाहिए । जब हम देखें कि आत्मा के अपने विकास के प्रयत्न में शरीर बाधारूप ही होता है, तब हमें उसे छोड़ना ही चाहिए, क्योंकि ऐसी हालत में जाग्रत आत्मा स्वयं ही शरीर के विरुद्ध अपनी साधना चलाता है ।
उपनिषदों में अन्न की निरुक्ति दो तरह से दी है - "आदमी द्वारा जो खाया जाता है" (अद्) या 'जो आदमी को खाता है" वह अन्न है । आहार जबतक साधना रूप है, तब तक वह शरीर को पोषण देता है । जब प्रहार शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पुष्टि की साधना छोड़कर केवल इन्द्रियतृप्ति और विलास का साधन बन जाता है, तब वह खाने वाले को ही खा जाता है । " अद्यते प्रत्ति वा इति अन्नम" “जो खाया जाता है, या जो खाता है, वही अन्न है ।"
वेदान्त के उपदेशक हमेशा एक उदाहरण दिया करते हैं कि अगर पांव में कांटा चुभ जाय तो दूसरा एक कांटा हाथ में लेकर पांव के कांटे को निकालना चाहिए और उसमें सफल होने के बाद दोनों कांटे को फेंक देने चाहिए । अगर हाथ में लिया हुआ कांटा उसके पहले फेंक दिया जाय तो पांव में घुसा हुआ कांटा कभी निकलेगा ही नहीं ।
जबतक जीने का ( या मरने का ) संकल्प है, तबतक हमें आत्महत्या करने का कोई अधिकार नहीं है ।