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मृत्यु का तर्पण : २ : ३१
लोग वैसा करते हैं, अथवा और लोग भी वैसा करते हैं, इसलिए हम भी करें' यह जवाब तत्त्व - जिज्ञासु या तत्त्व-परायण व्यक्ति को शोभा नहीं देगा। मैं ऐसी मीमांसा चाहता हूं, जो कि हरएक विचारशील मनुष्य को मान्य हो सके ।”
बहुत से लोग इस सवाल को निरर्थक समझते हैं । मामूली मनुष्य हँसकर कहेगा, "क्या जीने के लिए तात्विक समर्थन की जरूरत है ।" लेकिन ऐसा प्रति प्रश्न करने वाले लोग संन्यासीजी के ऊपर के सवाल की गंभीरता को नहीं समझ सके हैं । किन्तु खूबी यह है कि उनके प्रश्न में ही संन्यासीजी को एक तरह से उत्तर मिल जाता है ।
बहुत से लोग मानते हैं कि हमने जन्म लिया, यह हमारे वश की बात थी ही नहीं । हम इस दुनिया में आये, क्योंकि आने के लिए बाध्य हुए । इसमें हमारी केवल लाचारी ही थी । अगर हमसे पूछा जाता, तो हम आगे की सोचकर जन्म लेने से ही इन्कार कर देते ।
इस दृष्टि में बड़ा विचार - दोष है । 'हम जन्म नहीं लेते', कहने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रारम्भ कहाँ से होता है ? जो समझते हैं कि माता के उदर से निकल कर दुनिया में आने के बाद व्यक्तित्व का प्रारम्भ होता है, वे 'चर्म चक्षु' हैं, अदूर दृष्टि हैं। मां-बाप का काम संकल्प ही व्यक्तित्व का प्रारंभ है । उन्होंने परस्पर ओतप्रोत होने का संकल्प किया, तभी से व्यक्तित्व का उदय हुआ और इसलिए कबूल करना पड़ता है कि व्यक्ति इस दुनिया में स्वेच्छा से ही आता है ।
जो लोग पूर्व जन्म में मानते हैं, उन्हें तो स्वीकार करना ही चाहिए कि जन्म लेने की इच्छा के बिना जीवात्मा देह का धारण ही नहीं कर सकता ।
कुछ तत्त्वज्ञ- कवि ऐसा भी कहते हैं कि मनुष्य नये जीव को