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मृत्यु का तर्पण : १ : २६ है। मरण के पहले मनुष्य प्रधानतया अपने शरीर में रहता था और उस केन्द्र को सम्हालते हुए वह अपने व्यक्तित्व को इस समाज में या विश्व में चाहे जितना बढ़ा सकता था। मरण के बाद वह शारीरिक केन्द्र नष्ट हो जाता है, किन्तु जबतक उसके व्यक्तित्व की स्मृति बनी रहती है, तबतक उसका जीवन जारी ही है। उसका जो कुछ भला या बुरा कर्म समाज पर असर करता है, वही उसका मरणोत्तर जीवन है । ठण्डे कमरे में जब हम एक अंगीठी रखते हैं, तब कमरे की हवा में जो उष्णता आती है, उसकी अपेक्षा अंगीठी की उष्णता ज्यादा होती है। वही उसका व्यक्तित्व है। जब अंगीठी का कोयला खत्म हो जाता है, तब अंगीठी की सारी-की-सारी उष्णता कमरे को मिल जाती है । तब तो कमरे के अंदर की स ब उष्णता सम-समान हो गई । जो उष्णता अंगीठी के कोयले में थी, वह सारे कमरे में फैल गई । अंगीठी ने कमरे के जितना व्यापक रूप धारण कर लिया और उसका मोक्ष हो गया। अंगीठी के कोयले मर गये; लेकिन उसकी उष्णता कमरे को गरमी के रूप में जीवित है। यही अंगीठी का मरणोत्तर जीवन है।
जब हम कमरे के दरवाजे और खिड़कियां खोल देते हैं, तब अन्दर की उष्णता बाहर की हवामें विलीन हो जाती है। कितना भी अत्यल्प क्यों न हो, उस उष्णता का लाभ सारे वायुमण्डल को मिल ही जाता है।
मनुष्य के मरने पर उसका जीवात्मा कहिये या संस्कारसमुच्चय कहिये, उसके व्यक्तिगत वायुमण्डल में या परिस्थिति में विलीन हो जाता है और अन्त में वही सारे समाज में संस्कृति के रूप में रह जाता है। व्यक्तियों का सामुदायिक मरणोत्तर जीवन ही संस्कृति है। इसलिए संस्कृति को समाज की आत्मा