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२८ :: परमसखा मृत्यु
जीवन और मरण का विचार करते-करते हम पुनर्जन्म तक आ गये । लोगों का सामान्यतः ऐसा ख्याल है कि जिस तरह हम पानी, दूध या चावल एक बर्तन से निकालकर दूसरे बर्तन में भर देते हैं, उसी तरह जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। कोई-कोई ऐसा मानते हैं कि यह जीवात्मा नित्य है और अनन्त है। दूसरे कहते हैं, जीवात्मा का उतना ही स्वतंत्र अस्तित्व है, जितना किसी घड़े में भरे हुए 'घटाकाश' का। प्राकाश तो सर्वत्र एकरूप ही है, व्यक्तित्व
आकाश का नहीं था; किन्तु घट की आकृति से कुछ काल के लिए उत्पन्न हुआ था । बौद्ध लोग ऐसे आकाश को 'शून्य' कहते हैं और घट को 'संस्कार-समुच्चय' कहते हैं । फलतः वे आत्मा का स्वीकार नहीं कर सकते । जो प्रात्मा सर्वगत है, वह 'शून्य' हो या 'ब्रह्म', व्यक्तित्व की दृष्टि से एक ही हैं। और जब जीवात्मा मायारूप ही है, तब मरण का उसपर कोई असर होने का कारण ही नहीं। ____ मरण हाने पर यह व्यक्तित्व कहाँ जाता है ? यह कहना कि विष्णु लोक में जाता है, इन्द्रलोक चन्द्रलोक में जाता है, बच्चों का समाधान करना है। और फिर जब पता चला कि यह कल्पनामात्र है, तब उसे छोड़ देने की अपेक्षा उस कल्पना को रूपक मानकर हम उसमें से कुछ-न-कुंछ दार्शनिक या आध्यात्मिक अर्थ निकालने की चेष्टा करते हैं । शुद्ध बुद्धि कहती है कि जिस तरह नमक या मिश्री का टुकड़ा पानी में गिरते ही घुल जाता है, उसी तरह मनुष्य का व्यक्तित्व उसके आसपास के सम्बद्ध सामाजिक जीवन में विलीन हो जाता है । अादमी ने जो कुछ भला या बुरा किया हो, वह उसका शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक कर्म ही उसकी आत्मा थी। उसका जो कुछ असर समाज पर हुआ होगा, वही उसका मरणोत्तर जीवन