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२६ :: परमसखा मृत्यु उसने छोड़ दिया और अर्जुन का अपना शरीर इतना जीर्ण नहीं हुआ था, इसी वास्ते उसका देहपात नहीं हुआ ? __आश्वासन तो इस विश्वास से मिल सकेगा कि वस्त्र के बिना कोई जीवात्मा रह ही नहीं सकता । जो वस्त्र फेंका गया, वह चाहे जीर्ण हो या नया, उसे फेंक देते ही दूसरा वस्त्र (देह) मिलने ही वाला है । प्राणियों के लिए देह धारण अवश्यंभावी है, यही एक आश्वासन हो सकता है।
इस प्रश्न की ओर अब हम एक दूसरी दृष्टि से देखें। हमारी मोक्ष की कल्पना क्या है ? हम चाहते हैं कि एक दफा शरीर छूट जाने पर फिर से शरीर धारण करना ही न पड़े । कबीर ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य को मरना भी तो सीखना चाहिए। मरना ही है तो ऐसा मरे कि फिर से जीना ही न पड़े। जो लोग मृत्यु से डरते हैं, वे जीवन चाहते हैं। जिन लोगों ने दैहिक जीवन के, देहधारी अवस्था के, स्वरूप को अच्छी तरह से जान लिया है, वे तो जीवन से ही घबड़ाते हैं, मृत्यु से नहीं । वे कहते हैं, "कच्चे मरने से फिर से जन्म लेना पड़ता है । अगर कोई चीज खराब है तो जीवन है।" बौद्ध लोग भी जीवन के बन्धन से मुक्त होकर निर्वाण की शून्यता में प्रवेश करना चाहते हैं। . "तब जीवन क्या है ?"—यही सवाल हमारे सामने खड़ा हो जाता है । "जीवन एक साधना है या सजा है ?"
जबतक हम जीवन को नहीं पहचानते, तबतक मरण को भी नहीं पहचान सकेंगे। बचपन से ही हमने यह मान लिया है कि जीवन और मरण परस्पर-व्यावर्तक हैं, परस्पर-विरोधी हैं। “जहां प्रकाश नहीं, वहां अंधेरा है, उसी तरह जहां मरण आ गया, वहां जीवन खतम हुआ।" यह उपमा यहां जान-बूझ कर उलटे रूप में दी है। इसका उलटा रूप हो ही नहीं सकता।