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३२ :: परमसखा मृत्यु इस दुनिया में लाने के संकल्प के साथ जन्म और मृत्यु दोनों को आमन्त्रण देता है। विकार के कारण ही जिसकी पैदाइश है, ऐसा शरीर पूर्णतया निर्विकारी नहीं हो सकता । लेकिन, अगर किसी भी साधना के बल पर शरीर और मन निर्विकारी बन जायं, तो वह अमर भी बनेगा । अपने लिए मरण की तैयारी करके ही दो व्यक्ति नये जीव को जन्म दे सकते हैं अथवा सच तो यह है कि दो व्यक्तियों का संकल्प एक होकर बहुत हद तक स्वेच्छा से, वे नये जन्म का धारण करते हैं।
अगर यह बात सही है कि मनुष्य अपनी इच्छा, अपनी वासना या अपने संकल्प के कारण ही नया जन्म लेता है, तो जबतक यह जिजीविषा (जीने की इच्छा) खत्म नहीं हुई है, तबतक केवल आत्महत्या करने से, या अनशन करने से प्रादमी जीवन से निवृत्त नहीं हो सकता।
'छिन्नोऽपि रोहति तरु,'-न्याय से उसे फिर जन्म लेना ही होगा और आत्महत्या करने में चित्तवृत्ति में जो विकृति पैदा हो जाती है, उसका भी उसे हिसाब चुकाना पड़ेगा। केवल प्रात्महत्या करने से जीने का संकल्प नष्ट नहीं होता। बौद्ध और वेदान्ती लोग इससे आगे जाकर कहते हैं कि मरने का संकल्प भी एक संकल्प होने के कारण बंधन पैदा करता है और हम फिर से जन्म लेने के लिए बाध्य हो जाते हैं। जन्म और मृत्यु दोनों एक ही सिक्के के दो पहल हैं, यह बात जो समझ गए हैं, वे आत्महत्या के द्वारा बच जाने की आशा रखते हैं। वासनाक्षय के द्वारा और सम्यक दृष्टि के द्वारा ही जीने का संकल्प और मरने की इच्छा दोनों का नाश होता है। तत्त्वज्ञ पुरुष अच्छी तरह जानता है कि यह शरीर, एक तरह से देखा जाय तो, आत्मा का कारावास है, और यही शरीर जाग्रत और प्रयत्नशील व्यक्ति के लिए कारावास से मुक्त होने का साधन