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३० :: परमसखा मृत्यु
कहना चाहिए। असंख्य जीवात्माएं मिलकर यह सामाजिक विराटात्मा हम पाते हैं। व्यक्ति की कीर्ति जीवात्मा की छाया है। समाज की प्रतिष्ठा और उसको क्षमता सामाजिक प्रात्मा का व्यक्त स्वरूप है।
इस सामाजिक आत्मा की सेवा हम जीवन के ही द्वारा कर सकते हैं। मरण है तो जीवन का एक आवश्यक पहलू । इसलिए जब हम मौके पर मरना नहीं जानते, तब हमारा जीवन क्षीण और व्यर्थ हो जाता है । मरण में हमेशा जीवनद्रोह नहीं होता। अक्सर मरण में ही जीवन की परिपूर्ति औरसार्थकता होती है। जो लोग मौके पर मरण का स्वीकार नहीं करते, नका जीवन निस्तेज, भाररूप और व्यर्थ हो जाता है। उसके बाद उनके लिए 'यज्जीवति तन्मरणं, यन्मरणं सोस्य विश्रान्ति:—वह जितना जीता है, वह उनके व्यक्तित्व का मरण है और बाद में जो शारीरिक मरण आता है, वह उनकी विश्रान्ति है। (दिसम्बर, १९४०)
४ / मृत्यु का तर्पणः२ .
जीना अच्छा है या मरना? एक जिज्ञासु परमार्थिक सन्यासी लिखते हैं—“आपका 'मृत्यु का तर्पण' शीर्षक लेख मैंने अत्यन्त ध्यान-पूर्वक पढ़ा। उसमें एक भी ऐसा वाक्य नहीं है, जो मुझे मान्य न हो या जिसे मैं खुद न लिखता। मैं समझता हूं कि पुनर्जन्म के विषय में भी शायद आपके और मेरे विचार एक-से ही हैं । अब सवाल यह है कि अन्न खाकर और, वैसी ही नौबत आने पर, दूसरे की जान लेकर भी जीने की इतनी जिद हम क्यों करें ? 'सब