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१८ :: परमसखा मृत्यु
अपना संबंध छोड़ देता है । उसी तरह मनुष्य को चाहिए कि वह अपना जीवन पूरा करके अनासक्त ढंग से उसका त्याग करना सीखे और नये मौके की प्राप्ति के परवाना स्वरूप मरण का स्वागत करे ।
मनुष्य के पास अगर प्रसन्नता हो तो उसे जीना भी आयेगा और शांति और शोभा के साथ जीवन पूरा करना भी आयेगा, और बहादुरी के परिणाम स्वरूप मनुष्य सम्मान प्राप्त करने की तैयारी रखता है, उसी तरह जीवन के अंत में मरण की कृतार्थता पाने के लिए तैयार रहेगा ।
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मरण सचमुच मुक्ति रूप है । वासना से हम उसे क्लेशमय और कलुषित अगर न करें तो यह सहज ध्यान में आयेगा कि वह परम मित्र भी है। मित्र हो या बुजुर्ग हो, दयामय तो वह है ही । उसके मंदिर के द्वार मंगलमय हैं । कई लोग मरण की तुलना गहरे अंधेरे के साथ करते हैं और जीवन को प्रकाशमय मानते हैं । दिन के सफेद अंधेरे और रात के काले उजाले के बारे में मैंने कहीं लिखा है, वह यहां भी लागू होता है । जंगल पार करके हम खुले मैदान में आ पहुंचते हैं, तब जिस तरह उत्साह भरा आनन्द हमें होता है, उसी तरह जीवनवन पार करने के बाद और तिमिर मार्ग बिताने के बाद जो ज्योतिलोक हम पाते हैं, उसके प्रकाश में हमें भगवान मृत्यु के हृदय में धूमधाम के साथ स्थान प्राप्त करना चाहिए । विदेश में पुरुषार्थ करने वाले यात्री को जिस तरह स्वदेश का प्रखंड स्मरण रहता है और स्वदेश का अखंड स्मरण वह किया करता है, उसी तरह मनुष्य अगर मरण- विरह में ही जीवन पूरा करे तो अंत में उसकी प्यास बुझने ही वाली है और भगवान मरण की ओर से मिले हुए अमृत रस से वह प्रोत-प्रोत होने ही वाला है, क्योंकि मृत्यु जीवन का पूर्णविराम नहीं है । वह तो