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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 23 आयु में वे उनसे छोटे हैं। उनकी भौतिकी की विवेचना में इपीक्यूरीयनवाद की पूर्ण अवधारणा स्पष्टतया परिलक्षित होती है। इपीक्यूरीयनवाद उनके नीतिशास्त्र की अपेक्षा उनके भौतिकी के सिद्धांत से ही अधिक प्रभावित है, फिर भी उनकी नैतिक विवेचना में कुछ ऐसे तथ्य अवश्य हैं, जिनका स्वरूप निश्चित रूप से इपीक्यूरियनवाद जैसा है। इस प्रकार ये प्रथम विचारक है जो आनंद या प्रफुल्लता को ही अंतिम या सर्वोच्च शुभ मानते हैं। वे इस उच्चतम शुभ का तादात्म्य विक्षोभ रहित एवं समभाव से युक्त मनोदशा से करते हैं तथा अधिकतम सुख की उपलब्धि के साधन के रूप में मिताचार (संयम) और इच्छाओं को सीमित करने पर बल देते हैं। वे मात्र दैहिक सुखों के स्थान पर आत्मिक आनंद को प्राथमिकता देते हैं, विशेष रूप से इस भय से कि मरणोपरांत क्या होगा? तथा स्वयं मृत्यु के भय से मुक्ति पाने के लिए वे अंतर्दृष्टि या प्रज्ञा को महत्व प्रदान करते हैं। उनकी उपर्युक्त सभी शिक्षाएं इपीक्यूरीयनवाद में भी पाई जाती हैं। यदि हम डेमाक्रिटस की उपलब्ध नैतिक शिक्षाओं के मुख्य भाग का मूल्यांकन केवल उनके कथनों के इन अंशों के आधार पर करें, तो हमें इनका चिंतन वैसा ही अव्यवस्थित लगता है, जैसा कि सुकरात के पूर्ववर्ती युग के दार्शनिकों का होता था। उनकी मुख्य शिक्षाएं हैं - अन्याय करने की अपेक्षा अन्याय सहन करना बुरा है, केवल बुराई करना ही नहीं, वरन् बुराई का विचार भी घृणित एवं अनुचित है। उनके उपरोक्त उपदेशों में नैतिक भावनाओं के उन्नयन के प्रयास की सहज अभिव्यक्ति तो है, किंतु उनके परम शुभ के दृष्टिकोण से उनकी कोई संगति नहीं बैठती है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हो सकता है कि हेमाक्रिटस की नैतिक शिक्षाओं का जो भाग हमें उपलब्ध है, वह यह अनुमान करने के लिए पर्याप्त है कि ग्रीक दर्शन किस पकार नीतिशास्त्र की दिशा में अग्रसर होता है। वस्तुतः ग्रीक दर्शन को नीतिशास्त्र की देशा में मोड़ने का श्रेय सुकरात को है, यद्यपि उनके बिना भी यह हो पाना संभव था, केंत उन्हें यह श्रेय नैतिक दिशा को वैज्ञानिक बनाने के हेतु आवश्यक औपचारिकताओं को पूरा करने सम्बंधी प्रारम्भिक ज्ञान के लिए ही दिया जाता है।
यह सही है कि जब तक जन साधारण के सामान्य नैतिक विचारों की अस्पष्टता और असंगति की ओर ध्यान नहीं दिया जाता, तब तक किसी भी नैतिक दर्शन का संतोषजनक ढंग से निर्माण संभव नहीं है जब भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया दार्शनिकों का नैतिक विमर्श अनिवार्यतया अस्पष्टता और असंगति के इन दोषों से युक्त रहा। चाहे उन्होंने साधारण जनता की कितनी ही अवहेलना क्यों न की हो।