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महाराजा तखतसिंहजी वि० सं० १९०३ की पौष -सुदि १४ ( ई० स० १८४६ की ३१ दिसम्बर) की रातको शेखावत डूंगसिंह और जवाहरसिंह आगरे के किले का जेलखाना तोड़कर अन्य कैदियों के साथ बाहर निकल गए । इसके बाद उन्होंने नसीराबाद की छावनी को लूट लिया । यह देख गवर्नमैन्ट ने राजस्थान की प्रत्येक रियासत से उन्हें पकड़ने में सहायता देने की प्रार्थना की । इस पर जवाहरसिंह तो बीकानेर की तरफ़ चला गया और डूंगजी को मारवाड़ की सेनाने शेखावाटी और तूंरावाटी के बीच के मेडी नामक गांव में पकड़ लिया । उस समय अंगरेजी अफ़सर भी इस सेना के साथ थे। परन्तु पकड़ते समय मारवाड़ वालों ने उसे गवर्नमैन्ट को न सौंपने का वचन देदिया था। इससे यद्यपि गवर्नमैन्ट ने संधि का हवाला देकर पहले तो उसे अजमेर बुलवालिया, तथापि अन्त में जोधपुर दरबार की बात मानकर, वि० सं० १९०५ के भादों (ई० स० १८४८ के अगस्त ) में, उसे वापस जोधपुर भेज दिया । यहां पर वह किले में विना बेड़ी के ही पहरेवालों की निगरानी में रक्खा गया ।
__ वि० सं० १९०५ की पौष वदि १३ (ई० स० १८४८ की २३ दिसम्बर) को राजकीय सेनाने दौलतपुरे के गांव धणकोली पर अधिकार कर लिया।
वि० सं० १९०७ की ज्येष्ठ वदि ३० (ई० स० १८५० की १० जून ) के दिन महाराज ने चांदी से तुलादान किया।
वि० सं० १९०६ (ई० स० १८५२ ) में महाराज जालोर होते हुए आबू की तरफ़ गए । मार्ग में पौष सुदि ७ ( ई० स० १८५३ की १६ जनवरी) को जब यह सिरोही पहुंचे, तब वहां के राव शिवसिंहजी ने, पांच सौ मनुष्यों के साथ तीन कोस सामने आकर, इनकी पेशवाई की । तीसरे दिन महाराज ने भी उनको, उनके राजकुमारों को और सरदारों आदि को यथा-योग्य सरोपाव देकर सत्कार किया । इसके बाद पौष सुदि ११ (२१ जनवरी) को यह आबूं पहुँचे । वहां से लौटते समय इनके सिरोही और मारवाड़ की सरहद पर पहुँचने पर इन ( महाराज ) का
१. ये डाका डालने के कारण पकड़े गए थे। २. वि० सं० १८७४ (ई० स० १८१८) की सन्धि की धारा १ । ३. इस यात्रा में महाराज के साथ तोपें भी थीं, जो मार्ग में प्रत्येक पड़ाव से रवाना होने
पर छोड़ी जाती थीं । अनादरे से आबू को रवाना होते हुए भी इनसे सलामी दागी गई थी।
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