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महाराजा जसवन्तसिंहजी (द्वितीय) ( ई० स० १८८२ के अक्टोबर) में महाराजा जसवन्तसिंहजी ने यह कार्य फिर उन्हें सौंप दिया । उस समय रियासत की आमदनी २० लाख और खर्च ३० लाख के क़रीब था । साथ ही राज्य पर ४० - ५० लाख का कर्जा भी होगया था । परन्तु महाराज प्रतापसिंहजी के सुप्रबन्ध से, राज्य की आमद और खर्च का सालाना बजट बनाया जाकर उसी के अनुसार सारा काम होने से, राज्य की प्राय में बराबर वृद्धि होती गई और कुछ ही दिनों में खर्च से आमद बढ़ गई । इससे राज्य पर का बहुतसा कर्ज उतर गया और राज्य प्रबंध के लिये कई नए महकमे भी खोले गए। वैसे तो उन दिनों मारवाड़ के प्रत्येक प्रान्त में चोरी और डकैती का ज़ोर था, परंतु जालोर गोडवाड़, शिव और साकड़ा आदि के परगनों में मीणे, भील और बावरी आदि जुरायमपेशा क़ौमों के लोग चोरी-डकैती कर बड़ा उपद्रव किया करते थे । यह देख महाराजा जसवन्तसिंहजी और महाराज प्रतापसिंहजी ने उन परगनों में दौरा कर वहां के मशहूर जुरायम- पेशा लोगों और बागियों को सजाएं देने और साधारण जुरायम- पेशा लोगों को खेती के काम पर लगाने का प्रबन्ध किया । इससे जो जुरायम- पेशा लोग पहले तीर और तलवार लिए लूट मार किया करते थे, वेही कुछ दिन बाद हल और बैल लिए खेतों में काम करते दिखाई देने लगे ।
मारवाड़ में पहले यदि कोई अपराधी भंयकर अपराध कर किसी ठाकुर के स्थान या महामन्दिर आदि में जाकर बैठ जाता था, तो उक्त स्थान का स्वामी, उसको शरणागत समझ, उसकी मदद पर उठ खड़ा होता था और इससे अपराधी को दण्ड देना कठिन होजाता था । परंतु इस समय तक अदालतें और क़ायदे-कानून बन जाने से यह शरणदान की हानिकारक प्रथा उठा दी गई ।
१. महाराजा तखतसिंहजी ने राज्य की आय बढ़ाने और प्रजा के सुभीते के लिये नगर कई सरकारी दूकानें खुलवा दी थीं। इनमें आधुनिक बैंकों की तरह देन - लेन का काम होता था । परन्तु इनका प्रबन्ध ठीक न होसकने के कारण, वि० सं० १८७३ ) में, इनका हिसाब इकट्ठा कर आगे सूद पर रुपया देना और दिया हुआ रुपया वसूल कर ख़ज़ाने में जमा करवाने का हुक्म दिया गया ।
१६२६ ( ई० स० बंद कर दिया गया
२. उसी समय बाक़ियात के महकमें का प्रबन्ध भी ठीक किया गया । यह महकमा रेज़ीडेंसी में रहनेवाले रियासतों के वकीलों की पंचायत द्वारा की गई मारवाड़ के जागीरदारों पर की डिगरियों का रुपया वसूल करने के लिये खोला गया था ।
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