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महागजा जसवन्तसिंहजी (द्वितीय) ( सूअर के शिकार ) का प्रबन्ध भी था। इस मवेशियों के मेले में दूर-दूर के जानवर बिकने के लिये आए थे। इसके अलावा बूंदी, कोटा, बीकानेर, अलवर, नरसिंहगढ़
और खेतड़ी के महाराजा; तथा कर्नल ट्रेवर, ए. जी. जी. राजपूताना; कर्नल वायली, रैजीडेंट उदयपुर और कर्नल लॉक आदि १२५ अंगरेज अफसर भी यहां पर एकत्रित हुए थे । इस मेले में लाए गए बढ़िया जानवरों पर, राज्य की तरफ से, कई सौ रुपये इनाम दिए गए थे।
इन्हीं दिनों गोडवाड़ के देवड़ा राजपूतों ने बगावत शुरू की । इस पर वि० सं० १९५२ की आषाढ सुदि ४ (२६ जून) को स्वयं महाराज प्रतापसिंहजी उनको दबाने के लिये गए और कुछ दिन बाद लौट कर जोधपुर चले आए । परन्तु वहां का उपद्रव पूरी तौर से शान्त न हुआ । इस पर श्रावण वदि १ (७ जुलाई) को फिर वह ( महाराज प्रतापसिंहजी) उधर (गोडवाड़ की तरफ़ ) गए । इस अवसर पर महाराज-कुमार सरदारसिंहजी भी उनके साथ थे । यह देख बहुत से बागी महाराज की शरण में चले आए।
इसके बाद भादों वदि ११ (१६ अगस्त ) को उक्त प्रान्त के ३०० गांवों का प्रबन्ध ठीक करने के लिये उनको दो हिस्सों में बांट दिया गया, और दोनों भागों में एक-एक हकूमत कायम करदी गई । अर्थात्- पहले केवल बाली में ही हकूमत थी, परन्तु इस समय से देसूरी में भी हकूमत स्थापित करदी गई।
इसी साल सरदारों आदि के गोद लेने और लोगों के जान बूझकर चोरी की चीज़ खरीदने पर उन्हें सजा देने के नियम बनाए गए।
वि० सं० १९५२ की कार्तिक बदि ३ ( ई० स० १८९५ की ६ अक्टोबर) को महाराजा जसवन्तसिंहजी की तबीयत खराब हो गई । इस पर आपने ५,००० रुपये दान किए । इसके बाद बहुत कुछ इलाज किए जाने पर भी कार्तिक बदि ।
६,६७६ बैल, १६ भैंसे और ५२ बकरे बिकने को आए थे । उस अवसर पर मवेशी लाने वालों के लिये घास, लकड़ी, मट्टी के बरतन, और मेखों का प्रबन्ध राज्य की तरफ
से बिना मूल्य किया गया था। १. उस समय आज्ञानुसार समय पर मदद न देने से प्याद बखिशयों से गुढा सुथारों का, सिंधी
मुकनराज से गुढा जाटों का, और रावराजा मोतीसिंह से गुढा लासका जन्त कर लिए गए।
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