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मारवाड़ का इतिहास
में शीघ्र ही ईरान के बादशाह के मर जाने से, वि० सं० १६६६ के कार्तिक ( ई० स० १६४२ के अक्टोबर ) में यह ख़ाँ दौराँ नसरतजंग के साथ वापस लौट आएं।
इसके कुछ दिन बाद बीमार हो जाने के कारण राव अमरसिंहजी ने दरबार में जाना बन्द कर दिया । परन्तु स्वस्थ होने पर जब यह दरबार में उपस्थित हुए, तब बादशाह के बख़्शी सलाबतखाँ ने द्वेषवश इनसे कुछ कड़े शब्द कह दिए । बस फिर क्या था । रावजी की स्वतन्त्र प्रकृति जाग उठी । इससे इन्होंने, बादशाही दरबार का और स्वयं बादशाह की उपस्थिति का कुछ भी विचार न कर, शाही बख़्शी सलाबतख़ाँ के कलेजे में अपना कटार भोंक दिया और इनके इस प्रहार से वह, एक बार छटपटाकर, वहीं ठंडा हो गया ।
१. बादशाहनामा, भा० २ पृ० ३१० ।
२. ऊपर लिखा जा चुका है कि राव अमरसिंहजी को बादशाह की तरफ से नागौर का प्रान्त जागीर में मिला था । नागौर और बीकानेर की सरहद मिली होने से एक बार, एक तुच्छसी बात के लिये रावजी और बीकानेर- नरेश कर्णसिंहजी के आदमियों के बीच सरहदी फगड़ा उठ खड़ा हुआ । उस समय रावजी के मनुष्य निःशस्त्र और बीकानेरवाले हथियारों से लैस थे । इससे बीकानेरवालों ने उनमें से बहुतों को मार डाला । जैसे ही इस घटना की सूचना आगरे में अमरसिंहजी को मिली, वैसे ही इन्होंने अपने आदमियों को इसका बदला लेने की प्राज्ञा लिख भेजी। इसपर बीकानेर नरेश कर्णसिंहजी ने, दक्षिण से पत्र लिखकर, बादशाही बख्शी सलाबतखाँ को अपनी तरफ कर लिया । इसलिये उसने शाही अमीन द्वारा झगड़े की जाँच करवाने की आज्ञा निकाल कर रावजी के आदमियों को बीकानेरवालों से बदला लेने से रोक दिया । यही इनके आपस के द्वेष का कारण था | (देखो —' बादशाहनामा', भा० २ पृ० ३८२ ) ३. ख्यातों में लिखा है कि सलाबतखाँ ने उन्हें गँवार कहकर सम्बोधित किया था । इस विषय का यह दोहा प्रसिद्ध है:
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" उया मुखतै गग्गो कह्यो, इण कर लई
कटार । वार कह पायो नहीं, जमदढ हो गइ पार ॥ ,
अर्थात् सत्रातखाँ ने गँवार कहने के लिये मुँह से 'गँ' शब्द ही निकला था कि राव अमरसिंहजी ने कटार हाथ में ले लिया, और उसके 'वार' कहने के पहले ही रावजी का वह कटार उसके कलेजे के पार हो गया ।
बादशाहनामे में इनकी वीरता के विषय में लिखा है:
'अमरसिंह जैसा जवान, जोकि राजपूतों के ख़ानदानों में अपनी असालत और बहादुरी में मुमताज़ था, और जिसके हक में बादशाह गुमान रखता था कि किसी बड़ी लड़ाई में अपने रिश्तेदारों
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