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मारवाड़ के सिक्के भी कुछ अधिक मिलाया गया था। इन सिक्कों पर दारोगा का निशान 'ला' बना था, जो उसके पन्थ के आचार्य लालबाबा के नाम का पहला अक्षर था। ये सिक्के 'ला' अक्षर के कारण 'लुलूलिया' या लुलूलशाही कहाते थे ।
वि० सं० १९२३ (ई० स० १८६६) में महाराजा तखतसिंहजी के समय ही अनाड़सिंह ने जोधपुर की टकसाल में कुछ विजयशाही रुपये ऐसे भी बनवाए थे जिनमें खाद (Alloy) मामूली से अधिक डाला गया था। इन रुपयों पर उसने अपना निशान 'रा' रखा था, जो उसकी रावणा राजपूत जाति का पहला अक्षर था, और इसी से ये रुपये ‘रुरूरिया' के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
हम पहले ही लिख चुके हैं कि पुराने विजयशाही रुपयों पर शाहआलम का २२ वां राज्यवर्ष लिखा होने से वह 'बाईसंदा' भी कहाता था और वि० सं० १९५६ ( ई० स० १९००) में यहां पर ब्रिटिश भारत के रुपये का चलन हो जाने से मारवाड़ में इस रुपये का बनना बंद हो गया।
तांबे के सिक्के (पैसे) जोधपुर का विजयशाही पैसा भारी होने से ढब्बूशाही भी कहाता था । महागजा भीमसिंहजी के समय (वि० सं० १८५० से १८६० ई० स० १७९३ से १८०३ तक) इसका वजन दो माशा ओर बढ़ा दिया जाने से उस समय का पैसा 'भीमशाही' कहाने लगा । परन्तु इसके बाद जब महाराजा मानसिंहजी के समय इसका वजन वापिस घटा दिया गया, तब फिर यह ढब्बूशाही कहाने लगा । ऐसे टके १ मन तांबे में १४,००० के करीब बनते थे ।
इन पैसों का वजन ३१० से ३२० ग्रेन तक ( करीब १८ माशे ) मिलता है।
इसके बाद वि० सं० १९६३ ( ई० स० १९०६) में यहां के पैसे का वजन करीब १५८ ग्रेन का ( या बड़े पैसे से आधा) कर दिया गया और पहले लिखे अनुसार वि० सं० १९७१ (ई० स० १९१४) तक यह हलका पैसा जोधपुर की टकसाल में बनता रहा । परन्तु उसके बाद वि० सं० १९९३ (ई० स० १९३६) तक बंद रहकर अब फिर बनना प्रारम्भ हुआ है ।
१. इनमें 8 के स्थान पर खाद बतलाया जाता है । २. बाद में यह बहुधा अफीम तोलने के काम में लिया जाता था।
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