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मारवाड़ के सिक्के
कुचामन का इकतीसंदा ।
कुचामन नाम का कसबा ( Town ) मारवाड़ - राज्य के सांभर परगने में है और यहां का जागीरदार मेड़तिया राठोड़ है । वि० सं० १८४६ ( ई० स० १७८९ ) में, शाहआलम (द्वितीय) के ३१ वें राज्य वर्ष से, अजमेर में चांदी का सिक्का बनाना प्रारम्भ हुआ था । परन्तु कुछ समय बाद दिल्ली की मुगल बादशाहत के अधिक शिथिल होजाने पर वहां की टकसाल का दारोगा उस सिक्के का ठप्पा ( बाला और पाई ) लेकर कुचामन चला गया । उन दिनों कुचामन में व्यापार की अच्छी थी । इसी लिये वि० स० १८६५ ( ई० स० १८३८) में वहां के महराजा मानसिंहजी से आज्ञा प्राप्त कर अपने यहां चांदी का सिक्का बनाने एक टकसाल खोल दी । यह रुपया इसी कुचामन की टकसाल में बना होने से 'कुचामनिया' और इसपर शाह आलम द्वितीय का ३१ वां राज्यवर्ष लिखा होने से इकतीसंदा (इकतीस सना ) कहाया । परन्तु इसको 'बोपूशाही' और 'बोरसी' रुपया भी कहते थे ।
दशा बहुत
ठाकुर ने
के लिये
पुराना कुचामनी सिक्का तोल में १६६ ग्रेन ( १ माशे ४ रत्ती ) होता था और इसमें ६ माशे २ रत्ती चांदी और ३ माशे १ रत्ती तांबा (Alloy ) रहता था । नर कुचामनी सिक्के का, जो वि० सं० १९२० ( ई० स० १८६३) में छापा गया था, और जिसपर महारानी विक्टोरिया का नाम लिखा गया था, तोल १६८ ग्रेन ( १ माशे ५ रत्ती के करीब ) था ।
बिजेशाही रुपये के समान ही इसके तोल के हिसाब से इसके ठप्पे से अठन्नी, चवन्नी और दो अन्नी भी बनाई जाती थी ।
मारवाड़ में इसका बनना बन्द हो जाने और अंगरेजी रुपये का प्रचलन हो जाने पर भी इसके सस्ते होने के कारण मारवाड़ के लोग अब तक विवाह आदि में इसे देन-लेन के काम में लाते हैं ।
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१. महाराजा मान सिंहजी के समय कुछ काल तक बूडसू ठाकुर के यहां भी टकसाल रही थी यह ठिकाना मारवाड़ के परबतसर परगने में है और यहां का जागीरदार भी मेड़तिया राठोड़ है | साथ ही बूडसू के रुपये का ठप्पा भी कुचामन के इकतीसंदे रुपये के ठप्पे के समान ही था ।
२. कुछ लोग इसमें ७५ प्रतिशत चांदी और २५ प्रतिशत खाद होना बतलाते हैं ।
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