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जागीरदारों पर लगनेवाले राजकीय कर
परिशिष्ट-६. जागीरदारों पर लगनेवाले राजकीय कर ।
रेखं. जागीरदारों से 'रेख' के रूप में रुपया वसूल करने का रिवाज पहले-पहल अकबर के समय चला था । इसी से मारवाड़ में भी पहले-पहल सवाई राजा शूरसिंहजी के समय से ही जागीरदारों के पट्टों में उनके गांवों को रेख दर्ज की जाने लगी । परन्तु उन दिनों जागीरदारों को, मारवाड़-नरेशों के साथ रहकर, बादशाही कामों के लिये होनेवाले मारवाड़ से बाहर के युद्धों में भी भाग लेना पड़ता था। इसी से उस समय उनसे उस 'चाकरी' (सेवा ) के अलावा किसी प्रकार का अन्य कर नहीं लिया जाता था । वास्तव में उस समय राजपूत-सरदारों को जागीरें देने का मुख्य प्रयोजन भी यही था कि वे महाराज की तरफ से युद्ध में भाग लेकर शत्रु को दण्ड देने में सहायता करें । परन्तु जब महाराजा विजयसिंहजी के राज्य-समय मारवाड़ का सम्बन्ध मुगल बादशाहत से टूट गया और देश में मरहटों का उपद्रव उठ खड़ा हुआ, तब उस नवीन उपद्रव को दबाने के लिये जोधपुर-दरबार को रुपयों की आवश्यकता प्रतीत हुई । इसीसे महाराजा विजयसिंहजी ने, वि० सं० १८१२ ( ई. स. १७५५ ) में, जागीरदारों पर, शाही जज़िये और मारवाड़ से बाहर के युद्धों में भाग लेने की सेवा के बदले में, एक हजार की आमदनी पर तीन सौ रुपयों के हिसाब से 'मतालबा' नामक कर लगाया। इसके बाद उन ( महाराजा विजयसिंहजी) के राज्य-काल में ही यह कर और कईवार जागीरदारों से वसूल किया गया। परन्तु इस कर की रकम हरवार आवश्यकतानुसार घटती बढ़ती रही । उस समय के लिखित प्रमाणों से प्रकट होता है कि इसकी तादाद एक हजार की रेख ( आमदनी ) पर कम से कम डेढ़ सौ और अधिक से अधिक पांच सौ रुपयों तक पहुंची थी।
१. मजमूए हालात व इन्तिज़ाम मारवाड़, बाबत सन् १८८३-८४ (संवत् १६४० )
पृ० ३५३-३६१। २. इससे पूर्व भी जागीरदार लोग राज्य-रक्षा या राज्य-वृद्धि के लिये महाराज की तरफ
से युद्धों में भाग लिया करते थे। ३. वि. सं० १८४७ । ई० स० १७६०) में जिस समय मरहटों को पाँच लाख रुपये
दिए गए, उस समय इस हिसाब से रकम वसूल की गई थी।
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