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महाराजा सुमरसिंहजी वि० सं० १९७१ की वैशाख सुदि १ ( ४ मई) को गरमी की अधिकता के कारण महाराजा सुमेरसिंहजी आबू चले गए ।
इसी वर्ष की श्रावण सुदि १४ ( ई० स० १९१४ की ४ अगस्त) को जैसे ही जर्मनी और इंगलैंड के बीच युद्ध छिड़ने की सूचना मिली, वैसे ही नवयुवक महाराजा सुमेरसिंहजी और उनके पितामह ( महाराजा जसवंतसिंहजी के भ्राता ) वृद्ध महाराजा प्रतापसिंहजी ने, जोधपुर के रिसाले को साथ लेकर, युद्धस्थल में जाने और ब्रिटिशगवर्नमैंट की सहायता करने की इच्छा प्रकट की । इसके बाद गवर्नमैंट की स्वीकृति आजाने पर भादों वदि ९ ( १५ अगस्त) को जोधपुर में एक दरबार किया गया । इसमें राज्य के सरदार, मुत्सद्दी और कर्मचारी आदि सब ही उपस्थित हुए और इसके प्रधान का आसन स्वयं महाराजा साहब ने ग्रहण किया । इसी समय राज्य की तरफ़ से युद्ध - पीड़ितों की सहायता के लिये एक लाख रुपये दिए जाने की घोषणा की गई और अन्य लोगों से सहायता का चंदा एकत्रित करने के लिये एक ' कमेटी ' बनाई गई । जिस समय लोगों को अपने नवयुवक - महाराजा और उनके वृद्ध पितामह के युद्धस्थल में जाने की सूचना मिली, उस समय वे प्रेम से विह्वल हो गए ।
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भादों सुदि ९, १० र ११ (२६, ३० र ३१ अगस्त) को, ख़ास (स्पेशल ) ट्रेनों द्वारा, सरदार-रिसाला युद्ध के लिये रवाना हुआ और आश्विन वदि ८ (१२ सितंबर) को महाराजा सुमेरसिंहजी और महाराजा प्रतापसिंहजी भी रणक्षेत्र में सम्मिलित होने के लिये चल पड़े । इसके बाद लंदन पहुँचने पर आप दोनों सम्राट् जॉर्ज पंचम से मिले । सम्राट् ने नव-युवक महाराजा सुमेरसिंहजी की वीरता और उत्साह से प्रसन्न
१. इंगलैंड से लौटने पर महाराजा सुमेरसिंहजी का विचार सैनिक शिक्षा प्राप्ति के लिये देहरादून जाकर 'कैडिट-कोर' में सम्मिलित होने का था, परंतु इस यूरोपीय महायुद्ध के छिड़ जाने से वह विचार स्थगित करना पड़ा ।
२. महाराजा प्रतापसिंहजी के युद्धस्थल में चले जाने से यहां की 'रीजेंसी काउंसिल' के अध्यक्ष का कार्य पश्चिमी राजपूताने की रियासतों के रैजीडेंट कर्नल सी. जे. विंढम ( O. J. Windham ) को सौंपा गया |
इस वर्ष 'रीजेंसी काउंसिल' ने 'गांवाई खत' ( सारे गांव वालों पर लागू होने वाले कर्ज़ के दस्तावेज़ों) की प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया ।
३. इस यात्रा में बेड़ा-कुंवर पृथ्वीसिंह, खीची गुमानसिंह, जोधा धौंकलसिंह और ठाकुर दलपतसिंह (देवली ) महाराजा साहब के साथ थे ।
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