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महाराजा जसवन्तसिंहजी (द्वितीय) मंजूर होजाने पर यह लाइन भी वि० सं० १९४१ के ज्येष्ठ ( ई० स० १८८५ की मई ) तक बन कर तैयार हो गई । यद्यपि पाली से लूनी तक सीधे मार्ग से लाइन लाने में २१ मील का ही फ़ासला था, परन्तु मिस्टर होम ने भसलहत समझ इसमें ४ मील का घुमाव और देदिया । इससे बाद में पचपदरे की तरफ़ लाइन ले जाने में सुभीता होगया। इसके बाद वि० सं० १६४१ की फागुन बदि १ (ई० स० १८८५ की ३१ जनवरी ) तक २,२९,८२४ रुपये खर्च कर लूनी से जोधपुर तक की २१ मील की लाइन भी बनादी गई ।
पहले मारवाड़ के ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल लेजाने पर महसूल (चुंगी) लग जाता था । परन्तु वि० सं० १९३६ (ई० स० १८८२) में यह झगड़ा उठा कर सरहद पर ही चुंगी लेकर रसीद देने का प्रबन्ध कर दिया गया ।
पहले ब्राह्मणों, चारनों, भाटों, जागीरदारों और राज-कर्मचारियों के नाम से आनेवाले माल पर चुंगी नहीं लगती थी, परन्तु इसी वर्ष से यह रियायत बंद करदी गई।
१. वि० सं० १६४१ के भादों (ई० स० १८८४ के अगस्त ) में लूनी से पचपदरे तक
की रेल्वे-लाइन बनाने की आज्ञा दी गई, और इसके लिये पहले १०,४६,२०० रुपयों
की और बाद में फिर १,००,००० रुपयों की मंजूरी हुई। २. पहले माल पर हासिल के अलावा कुछ अन्य लागें-जैसे मापा, दलाली, चुंगी, आढत,
कोतवाली, श्रीजी (दरबार की), कानूँगोई, दरबानी, और महसूल गल्ला आदि-भी लगती थीं और इनके अलावा जागीरदार भी अपनी जागीर के गांवों में निसार और पैसार के हासिल के साथ अनेक तरह की लागें लिया करते थे । परन्तु इस समय से ये
सब लागें उठादी गई। पहले अक्सर यह चुंगी (सायर ) का महकमा ठेके पर दे दिया जाता था और महसूल की निर्ख कानूँगो के बतलाए ज़बानी हिसाब पर ही नियत रहती थी। इसी से महाराजा मानसिंहजी और महाराजा तखतसिंहजी के समय तक इस महकमे की आय केवल तीन लाख के करीब रही। परन्तु महाराजा जसवन्तसिंहजी के समय आय में अच्छी वृद्धि हुई । वि० सं० १६३६ (ई० स० १८८२-१८८३) में इस महकमे के नियमों में फिर सुधार किया गया। इसी प्रकार वि० सं० १९४३ (ई० स० १८८६ ) में मारवाड़ में होकर जाने वाले माल पर की कुछ चुंगी छोड़ दी गई, और वि० सं० १६४७ ( ई० स० १८६० ) में इसमें पूरी तौर से सुधार किया गया।
___ जागीरदारों को उनकी तरफ से लगने वाली चुंगी ( सायर ) के बदले कुछ रुपया दिया जाना तय हुआ।
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