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मारवाड़ का इतिहास यह दिल्ली होते हुए हरद्वार पहुँचे, और वहां से मथुरा, डीग और पुष्कर होते हुए प्रथम आषाढ़ ( जून ) में जोधपुर लौट आए।
इन दिनों आउवा, आसोप और गूलर के ठाकुर तथा उनके जिले के छोटे-छोटे जागीरदार बागी हो रहे थे । इसी से वि० सं० १९१४ के ज्येष्ठ ( ई० स० १८५७ की मई ) में गूलर के ठाकुर की उद्दण्डता के कारण उसके जागीर के गांव पर सेना भेजकर वहां पर अधिकार कर लिया गया।
इसी वर्ष हिन्दुस्तान में सिपाई-विद्रोह की आग भड़क उठी। इसपर अंगरेजसरकार की तरफ़ से पोलिटिकल एजैंट और गवर्नर जनरल के राजपूताने के एजेंट ने महाराज से मारवाड़ में बागी सिपाहियों को न घुसने देने की प्रार्थना की । महाराज ने भी ज्येष्ठ सुदि १४ (६ जून ) को सिंधी कुशलराज को इसका प्रबन्ध करने के लिये नियुक्त कर दिया। इसी से जिस समय नसीराबाद और नीमच की छावनियों की सेनाएं, दिल्ली की तरफ़ जाती हुई, मारवाड़ में होकर निकलीं, उस समय उसने उनका पीछा कर उन्हें मारवाड़ में उपद्रव करने से रोक दिया । महाराज ने कुछ सेना अजमेर की रक्षा के लिये भी भेजी थी। इसलिये जब आषाढ वदि १ (१६ जून ) को पँवार अनाड़सिंह और महता छत्रसाल आदि उस सेना का वेतन बांटने को भेजे गए, तब वहां के अंगरेज-अफसर ने आनासागर तक सामने आकर इनका सत्कार किया। इस के बाद ये लोग ब्यावर जाकर गवर्नर जनरल के एजेन्ट से मिले । उसके सेक्रेटरी ने भी उसी प्रकार आगे आ इन्हें मान दिया ।
इसके ५ दिन बाद ब्यावर की तरफ से भागकर आई हुई चार अंगरेज-स्त्रियां जोधपुर पहुँची। महाराज ने उन्हें सूरसागर में स्थित पोलोटिकल एजैंट की रक्षा में मेज दिया।
आषाढ़ सुदि ५ ( २६ जून ) को महाराज की आज्ञा से सिंध से जयसलमेर और १. इसके बाद सिंघी कुशलराज, कुचामन-ठाकुर केसरीसिंह, और खैरवे-ठाकुर सांवतसिंह
२,... सैनिक लेकर जयपुर-राज्य के तुंगा नामक गांव में पहुँचे, और वहां से जयपुर के पोलिटिकल एजैन्ट के साथ हो लिए । परन्तु बागी-सैनिकों के मरने-मारने को उद्यत होने के कारण अंगरेज़-अफसर, युद्ध करने का विचार छोड़, एक कोस के फासले से बागियों का पीछा करते रहे । रोज़नामचे में लिखा है कि जब उन अंगरेज़ी-अफसरों के साथ की सेना बागी होगई, तब उनको जोधपुर की सेना की शरगा में आकर अपनी प्राण-रक्षा करनी पड़ी।
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