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मारवाड़ का इतिहास
पाते ही महाराज और पोलिटिकल एजैंट कप्तान इम्पे लौट कर जोधपुर आए और सावन ( अगस्त ) में यहां से नागोर गए । पहले तो जोरावर सिंहजी ने इनका सामना करने का विचार किया, परन्तु अन्त में समझाने से वह किला छोड़ कर पिता के पास चले आए। इसके बाद महाराज उन्हें लेकर भादों ( सितम्बर) में जोधपुर लौटे | नागोर-प्रान्त के जिन जागीरदारों ने महाराज - कुमार का साथ दिया था, वे भी उन ( ज़ोरावरसिंहजी ) के साथ थे । परन्तु जब उनमें से गोता के ठाकुर को पकड़ कर क़ैद करदिया गया, तब महाराज - कुमार जोरावरसिंहजी अजमेर चले गए और इसके बाद कुछ दिन तक उन्हें वहीं रहना पड़ा । इसी बीच राजकीय सेना ने जाकर खाटू पर अधिकार कर लिया । परन्तु वहां का ठाकुर बचकर निकल गया ।
इसी वर्ष आश्विन ( सितम्बर) में महाराज आबू गए और वहां से लौटकर कार्तिक (अक्टोबर ) में पाली पहुँचे । इन दिनों आपका स्वास्थ्य ख़राब हो रहा था । इससे गवर्नर-जनरल का एजेन्ट और पोलिटिकल एजेन्ट भी वहां गए । इसके बाद महाराज ने, कार्तिक वदि १२ ( २९ अक्टोबर ) को, उनकी सलाह से, महाराजकुमार जसवन्तसिंहजी को युवराज-पद देकर राज्य कार्य का प्रबन्ध सौंप दिया । इसके बाद महाराज और महाराज - कुमार जोधपुर चले आए।
वि० सं० १९२९ की माघ सुदि १२ और १३ ( ई० स० १८७३ की ह और १० फरवरी) को महाराज ने अपने स्वास्थ्य के अधिक ख़राब होजाने के कारण एक लाख रुपये दान किए और माघ सुदि १५ ( ई० स० १८७३ की १२ फरवरी ) को महाराजा तखतसिंहजी का, राजयक्ष्मा की बीमारी से, स्वर्गवास होगया ।
यद्यपि महाराजा तख़तसिंहजी बड़े वीर और चतुर थे, तथापि आपके रनवास के साथ और शिकार में अधिक रहने के कारण मंत्रियों को मनमानी करने का मौका मिल जाता था ।
महाराज ने राजपूत जाति में होनेवाले कन्या - वध को रोकने के लिये कठोर आज्ञाएं प्रचलित की थीं, और ऐसी आज्ञाओं को पत्थरों पर खुदवाकर मारवाड़ के तमाम क़िलों और हकूमतों के द्वारों पर लगवा दिया था । आप ही के समय जागीरदारों
१. कार्तिक सुदि १४ ( १४ नवम्बर ) को मेहता विजैसिंह दीवान बनाया गया, और मँसिर वदि १ ( १६ नवम्बर ) से महाराज - कुमार जसवन्तसिंहजी ने राज- कार्य करना प्रारम्भ किया ।
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